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जु॒षस्व॑ नः स॒मिध॑मग्ने अ॒द्य शोचा॑ बृ॒हद्य॑ज॒तं धू॒ममृ॒ण्वन्। उप॑ स्पृश दि॒व्यं सानु॒ स्तूपैः॒ सं र॒श्मिभि॑स्ततनः॒ सूर्य॑स्य ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

juṣasva naḥ samidham agne adya śocā bṛhad yajataṁ dhūmam ṛṇvan | upa spṛśa divyaṁ sānu stūpaiḥ saṁ raśmibhis tatanaḥ sūryasya ||

पद पाठ

जु॒षस्व॑। नः॒। स॒म्ऽइध॑म्। अ॒ग्ने॒। अ॒द्य। शोच॑। बृ॒हत्। य॒ज॒तम्। धू॒मम्। ऋ॒ण्वन्। उप॑। स्पृ॒श॒। दि॒व्यम्। सानु॑। स्तूपैः॑। सम्। र॒श्मिऽभिः॑। त॒त॒नः॒। सूर्य॑स्य ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:2» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:1» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पञ्चमाष्टक के द्वितीयाऽध्याय का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् लोग किसके तुल्य वर्तें, इस विषय का उपदेश करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वि विद्वन् ! आप अग्नि जैसे (समिधम्) समिधा को, वैसे (नः) हमारी प्रजा का (जुषस्व) सेवन कीजिये तथा अग्नि के तुल्य (अद्य) आज (बृहत्) बड़े (यजतम्) सङ्ग करने योग्य व्यवहार को (शोचा) पवित्र कीजिये और (धूमम्) धूम को (ऋण्वन्) प्रसिद्ध करते हुए अग्नि के तुल्य सत्य कामों का (उप, स्पृश) समीप से स्पर्श कीजिये तथा (सूर्यस्य) सूर्य के (स्तृपैः) सम्यक् तपे हुए (रश्मिभिः) किरणों से वायु के तुल्य (दिव्यम्) कामना के योग्य वा शुद्ध (सानु) सेवने योग्य धन को (सम्, ततनः) सम्यक् प्राप्त कीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! जैसे अग्नि समिधाओं से प्रदीप्त होता, वैसे हमको विद्या से प्रदीप्त कीजिये। जैसे सूर्य की किरणें सब का स्पर्श करती हैं, वैसे आप लोगों के उपदेश हम को प्राप्त होवें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वांसः किंवद्वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वमग्निः समिधमिव नः प्रजा जुषस्व पावकइवाद्य बृहद्यजतं शोचा धूममृण्वन्नाग्निरिव सत्यानि कार्य्याण्युपस्पृश सूर्यस्य स्तूपै रश्मिभिर्वायुवद् दिव्यं सानु सं ततनः ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (जुषस्व) सेवस्व (नः) अस्माकम् (समिधम्) काष्ठविशेषम् (अग्ने) अग्निरिव विद्वन् (अद्य) इदानीम् (शोचा) पवित्रीकुरु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (बृहत्) महत् (यजतम्) सङ्गन्तव्यम् (धूमम्) (ऋण्वन्) प्रसाध्नुवन् (उप) (स्पृश) (दिव्यम्) कमनीयं शुद्धं वा (सानु) सम्भजनीयं धनम् (स्तूपैः) सन्तप्तैः (सम्) (रश्मिभिः) किरणैः (ततनः) व्याप्नुहि (सूर्यस्य) सवितुः ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथाग्निः समिद्भिः प्रदीप्यते तथाऽस्मान् विद्यया प्रदीपयन्तु यथा सूर्यस्य रश्मयस्सर्वानुपस्पृशन्ति तथा भवतामुपदेशा अस्मानुपस्पृशन्तु ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात (अग्नी) माणूस, विद्युत, विद्वान, अध्यापक, उपदेशक, उत्तम वाणी, पुरुषार्थ, विद्वानांचा उपदेश व स्त्री इत्यादींच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जसा अग्नी समिधांमुळे प्रदीप्त होतो तसे आम्हाला विद्येने प्रदीप करा. जशी सूर्याची किरणे सर्वांना स्पर्श करतात तसे तुमचे उपदेश आम्हाला प्राप्त व्हावेत. ॥ १ ॥