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आव॒दिन्द्रं॑ य॒मुना॒ तृत्स॑वश्च॒ प्रात्र॑ भे॒दं स॒र्वता॑ता मुषायत्। अ॒जास॑श्च॒ शिग्र॑वो॒ यक्ष॑वश्च ब॒लिं शी॒र्षाणि॑ जभ्रु॒रश्व्या॑नि ॥१९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āvad indraṁ yamunā tṛtsavaś ca prātra bhedaṁ sarvatātā muṣāyat | ajāsaś ca śigravo yakṣavaś ca baliṁ śīrṣāṇi jabhrur aśvyāni ||

पद पाठ

आव॑त्। इन्द्र॑म्। य॒मुना॑। तृत्स॑वः। च॒। प्र। अत्र॑। भे॒दम्। स॒र्वऽता॑ता। मु॒षा॒य॒त्। अ॒जासः॑। च॒। शिग्र॑वः। यक्ष॑वः। च॒। ब॒लिम्। शी॒र्षाणि॑। ज॒भ्रुः॒। अश्व्या॑नि ॥१९॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:18» मन्त्र:19 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:19


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

जो मनुष्य परस्पर की रक्षा कर न्याय से राज्य को पालते हैं, वे ही शिर के समान उत्तम होते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अजासः) शस्त्र और अस्त्रों के छोड़ने (शिग्रवः) सांकेतिक बोली बोलने (यक्षवश्च) और सङ्ग करने वा (यमुना) नियम करने (तृत्सवश्च) और मारनेवाले जन (अत्र) इस (सर्वताता) राज्यपालनरूपी यज्ञ में (बलिम्) भोगने योग्य पदार्थ को और (अश्व्यानि) बड़ों के इन (शीर्षाणि) शिरों को (जभ्रुः) धारण करते हैं (च) और जो (भेदम्) विदीर्ण करने वा एक एक से तोड़-फोड़ करने को (प्र, मुषायत्) चुराता छिपाता है वा जो (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यवान् की (आवत्) रक्षा करे, वे सब श्रेष्ठ हैं ॥१९॥
भावार्थभाषाः - जो राजा आदि जन, सब मनुष्यों को अभयरूपी दक्षिणा जिस के बीच विद्यमान है, ऐसे राज्यपालनरूपी यज्ञ में भेद बुदि को छोड़, महान् धार्मिक उत्तम जनों के एकमति आदि उत्तम कामों को स्वीकार कर शत्रुओं के जीतने को प्रवृत्त होते हैं, वे ही परमैश्वर्य को प्राप्त होते हैं ॥१९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

ये मनुष्याः परस्परेषां रक्षणं विधाय न्यायेन राज्यं पालयन्ति त एव शिरोवदुत्तमा भवन्ति ॥

अन्वय:

ये अजासः शिग्रवः यक्षवश्च यमुना तृत्सवश्चात्र सर्वताता बलिमश्व्यानि शीर्षाणि जभ्रुः यश्च भेदं प्रमुषायदिन्द्रमावत् ते सर्वे वरास्सन्ति ॥१९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आवत्) रक्षेत् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम् (यमुना) नियन्तारः (तृत्सवः) हिंस्राः (च) (प्र) (अत्र) अस्मिन् (भेदम्) विदारणं भेदभावं वा (सर्वताता) राजपालनाख्ये यज्ञे (मुषायत्) मुष्णाति (अजासः) शस्त्रास्त्रप्रक्षेपकाः (च) (शिग्रवः) अव्यक्तशब्दकर्तारः। अत्र शिजि धातोरौणादिको रुक् प्रत्ययः। (यक्षवः) सङ्गन्तारः (च) (बलिम्) भोग्यं पदार्थम् (शीर्षाणि) शिरांसि (जभ्रुः) बिभ्रति (अश्व्यानि) अश्वानां महतामिमानि ॥१९॥
भावार्थभाषाः - ये राजादयः सार्वजनिकाभयदक्षिणे राज्यपालनाख्ये यज्ञे भेदबुद्धिं विहाय महतां धार्मिकाणामुत्तमान्यैकमत्यादीनि कर्माणि स्वीकृत्य शत्रूणां विजयाय प्रवर्त्तन्ते त एव परमैश्वर्यं प्राप्नुवन्ति ॥१९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे राजे सर्व माणसांना राज्य पालनरूपी यज्ञात अभयरूपी दक्षिणा देऊन भेदबुद्धी सोडून महान धार्मिक उत्तम लोकांच्या एक विचाराने उत्तम कामाचा स्वीकार करतात व शत्रूंना जिंकण्यास प्रवृत्त होतात ते परम ऐश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ १९ ॥