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अ॒र्धं वी॒रस्य॑ शृत॒पाम॑नि॒न्द्रं परा॒ शर्ध॑न्तं नुनुदे अ॒भि क्षाम्। इन्द्रो॑ म॒न्युं म॑न्यु॒म्यो॑ मिमाय भे॒जे प॒थो व॑र्त॒निं पत्य॑मानः ॥१६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ardhaṁ vīrasya śṛtapām anindram parā śardhantaṁ nunude abhi kṣām | indro manyum manyumyo mimāya bheje patho vartanim patyamānaḥ ||

पद पाठ

अ॒र्धम्। वी॒रस्य॑। शृ॒त॒ऽपाम्। अ॒नि॒न्द्रम्। परा॑। शर्ध॑न्तम्। नु॒नु॒दे॒। अ॒भि। क्षाम्। इन्द्रः। म॒न्युम्। म॒न्यु॒ऽम्यः॑। मि॒मा॒य॒। भे॒जे। प॒थः। व॒र्त॒निम्। पत्य॑मानः ॥१६॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:18» मन्त्र:16 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (क्षाम्) भूमि को (पत्यमानः) पति के समान आचरण करता हुआ (इन्द्रः) ऐश्वर्ययुक्त शत्रुओं को विदीर्ण करनेवाला (वीरस्य) शुभ गुणों में व्याप्त राजा (शृतपाम्) पके हुए दूध को पीने वा (अर्द्धम्) वर्षने वा (शर्धन्तम्) बल करनेवाले सेनापति को पाकर (अनिन्द्रम्) अनैश्वर्य को (पराणुनुदे) दूर करता है वा जो (मन्युम्यः) क्रोध को नष्ट करनेवाला शत्रुओं पर (मन्युम्) क्रोध को (अभि) सम्मुख से (मिमाय) मानता (पथः) वा मार्गों को और (वर्त्तनिम्) जिसमें वर्त्तमान होते हैं उस न्याय-मार्ग को (भेजे) सेवता है, वही राजजनों में श्रेष्ठ और राजराजेश्वर होता है ॥१६॥
भावार्थभाषाः - जो राजा वीर जनों की बल वृद्धि करके दुष्टों पर क्रोध करता और धार्मिकों पर आनन्ददृष्टि हो तथा न्याययुक्त मार्ग का अनुगामी होता हुआ ऐश्वर्य को पैदा करता है, वही सर्वदा वृद्धि को प्राप्त होता है ॥१६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्स राजा किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

यः क्षां पत्यमान इन्द्रो वीरस्य शृतपामर्धं शर्धन्तं सेनेशं प्राप्यानिन्द्रम्पराणुनुदे यो मन्युम्यः शत्रूणामुपरि मन्युमभिमिमाय पथो वर्तनिं च भेजे स एव राजवरो राजराजेश्वरो भवति ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अर्द्धम्) वर्द्धकम् (वीरस्य) व्याप्तशुभगुणस्य (शृतपाम्) यः शृते परिपक्वं पयसं पिबति तम् (अनिन्द्रम्) अनैश्वर्यम् (परा) दूरे (शर्धन्तम्) बलयन्तम् (नुनुदे) नुदति (अभि) आभिमुख्ये (क्षाम्) भूमिम्। क्षेति भूमिनाम। (निघं०१.१)। (इन्द्रः) ऐश्वर्ययुक्तः शत्रूणां विदारकः (मन्युम्) क्रोधम् (मन्युम्यः) यो मन्युं मिनोति सः (मिमाय) मिमीते (भेजे) भजति (पथः) मार्गान् (वर्तनिम्) वर्तन्ते यस्मिंस्तं न्यायमार्गम् (पत्यमानः) पतिरिवाचरन् ॥१६॥
भावार्थभाषाः - यो राजा वीराणां बलवृद्धिं कृत्वा दुष्टानामुपरि क्रोधकृद् धार्मिकाणामुपर्यानन्ददृष्टिः न्याय्यं पन्थानमनु वर्त्तमानः सन्नैश्वर्यं जनयति स एव सर्वदा वर्धते ॥१६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राजा वीरांच्या बलाची वृद्धी करून दुष्टांवर क्रोध करतो व धार्मिकांवर आनंदाची दृष्टी ठेवतो, तसेच न्याययुक्त मार्गाचा अनुगामी बनून ऐश्वर्य उत्पन्न करतो तोच सदैव उन्नती करतो. ॥ १६ ॥