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अध॑ श्रु॒तं क॒वषं॑ वृ॒द्धम॒प्स्वनु॑ द्रु॒ह्युं नि वृ॑ण॒ग्वज्र॑बाहुः। वृ॒णा॒ना अत्र॑ स॒ख्याय॑ स॒ख्यं त्वा॒यन्तो॒ ये अम॑द॒न्ननु॑ त्वा ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adha śrutaṁ kavaṣaṁ vṛddham apsv anu druhyuṁ ni vṛṇag vajrabāhuḥ | vṛṇānā atra sakhyāya sakhyaṁ tvāyanto ye amadann anu tvā ||

पद पाठ

अध॑। श्रु॒तम्। क॒वष॑म्। वृ॒द्धम्। अ॒प्ऽसु। अनु॑। द्रु॒ह्युम्। नि। वृ॒ण॒क्। वज्र॑ऽबाहुः। वृ॒णा॒नाः। अत्र॑। स॒ख्याय॑। स॒ख्यम्। त्वा॒ऽयन्तः॑। ये। अम॑दन्। अनु॑। त्वा॒ ॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:18» मन्त्र:12 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:26» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा अमात्य और प्रजा पुरुष परस्पर कैसे वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (ये) जो (अत्र) यहाँ (सख्याय) मित्रता के लिये (सख्यम्) मित्रपन को (वृणानाः) स्वीकार करते और (त्वायन्तः) तुम्हारी चाह करते हुए धार्मिक विद्वान् पुरुष (त्वा) तुमको (अनु, अमदन्) आनन्दित करते हैं (अध) इसके अनन्तर उनसे जिस कारण (श्रुतम्) सुना इस कारण उनमें से (कवषम्) उपदेश करनेवाले (वृद्धम्) अवस्था और विद्या से अधिक को और (द्रुह्युम्) दुष्टों से द्रोह करनेवाले को जो (वज्रबाहुः) शास्त्रों को हाथों में रखनेवाला (निवृणक्) निरन्तर विवेक से स्वीकार करता और (अप्सु) जलों में (अनु) अनुकूलता से स्वीकार करता है, उन सबको वा उसको सब सत्कार करें ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जो आपके अनुकूल वर्त्तमान हैं, जिनके अनुकूल आप हैं, वे सब मित्र मित्र होकर न्याय से पुत्र के समान पालन कर आनन्द भोगें ॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजामात्याः प्रजापुरुषाश्च परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! येऽत्र सख्याय सख्यं वृणानास्त्वायन्तो धार्मिका विद्वांसस्त्वान्वमदनध तैः यच्छ्रुतं तेषां मध्ये कवषं वृद्धं द्रुह्युं यो वज्रबाहुः नि वृणक् अप्स्वनुवृणक् तांस्तं च सर्वे सत्कुर्वन्तु ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अध) अथ (श्रुतम्) (कवषम्) उपदेशकम् (वृद्धम्) वयोविद्याभ्यामधिकम् (अप्सु) जलेषु (अनु) (द्रुह्युम्) यो द्रोग्धि तम् (नि) (वृणक्) वृणक्ति (वज्रबाहुः) शस्त्रपाणिः (वृणानाः) स्वीकुर्वाणाः (अत्र) (सख्याय) मित्रत्वाय (सख्यम्) मित्रभावम् (त्वायन्तः) त्वां कामयमानाः (ये) (अमदन्) मदन्ति हर्षन्ति (अनु) (त्वा) त्वाम् ॥१२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! ये तयानुकूला वर्तन्ते येषां चानुकूलो भवान् वर्तते ते सर्वे सखायो भूत्वा न्यायेन पुत्रवत् प्रजास्सम्पाल्यानन्दं भुञ्जीरन् ॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा! जे तुझ्या अनुकूल वागतात तूही त्यांच्या अनुकूल वाग. सर्वांनी परस्पर मित्र बनून न्यायाने पुत्राप्रमाणे पालन करून आनंद भोगावा. ॥ १२ ॥