त्वे ह॒ यत्पि॒तर॑श्चिन्न इन्द्र॒ विश्वा॑ वा॒मा ज॑रि॒तारो॒ अस॑न्वन्। त्वे गावः॑ सु॒दुघा॒स्त्वे ह्यश्वा॒स्त्वं वसु॑ देवय॒ते वनि॑ष्ठः ॥१॥
tve ha yat pitaraś cin na indra viśvā vāmā jaritāro asanvan | tve gāvaḥ sudughās tve hy aśvās tvaṁ vasu devayate vaniṣṭhaḥ ||
त्वे इति॑। ह॒। यत्। पि॒तरः॑। चि॒त्। नः॒। इ॒न्द्र॒। विश्वा॑। वा॒मा। ज॒रि॒तारः॑। अस॑न्वन्। त्वे इति॑। गावः॑। सु॒ऽदुघाः॑। त्वे इति॑। हि। अश्वाः॑। त्वम्। वसु॑। दे॒व॒ऽय॒ते। वनि॑ष्ठः ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पच्चीस ऋचावाले अठारहवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा कैसा श्रेष्ठ होता है, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ राजा कीदृशो वरो भवतीत्याह ॥
हे इन्द्र राजँस्त्वे सति सद्ये नः पितरश्चिज्जरितारो विश्वा वामा असन्वँस्त्वे ह सुदुघा गावोऽसन्वँस्त्वे ह्यश्वा असन्वन् यस्त्वं देवयते वनिष्ठः सन् वसु ददासि स त्वं सर्वैः सेवनीयः ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, राजा, प्रजा, मित्र, धार्मिक, अमात्य, शत्रू निवारण व धार्मिक सत्काराचा अर्थ प्रतिपादन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.