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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

स्पा॒र्हा यस्य॒ श्रियो॑ दृ॒शे र॒यिर्वी॒रव॑तो यथा। अग्रे॑ य॒ज्ञस्य॒ शोच॑तः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

spārhā yasya śriyo dṛśe rayir vīravato yathā | agre yajñasya śocataḥ ||

पद पाठ

स्पा॒र्हा। यस्य॑। श्रियः॑। दृ॒शे। र॒यिः। वी॒रऽव॑तः। य॒था॒। अग्रे॑। य॒ज्ञस्य॑। शोच॑तः ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:15» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

किसका धन प्रशंसनीय होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यस्य) जिस (वीरवतः) वीरोंवाले के (स्पार्हाः) चाहना करने योग्य (श्रियः) लक्ष्मी शोभाएँ (दृशे) देखने को योग्य हों वह (यथा) जैसे (अग्रे) पहिले (शोचतः) पवित्र (यज्ञस्य) सङ्ग के योग्य व्यवहार का साधक (रयिः) धन है, वैसे सत्क्रिया का सिद्ध करनेवाला हो ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । उसी का धन सफल है, जिसने न्याय से उपार्जन किया धन धर्मयुक्त व्यवहार में व्यय किया होवे ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कस्य धनं प्रशंसनीयं भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यस्य वीरवतस्स्पार्हाः श्रियो दृशे योग्याः स यथाऽग्रे शोचतो यज्ञस्य साधको रयिरस्ति तथा सत्क्रियासिद्धिकरः स्यात् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्पार्हाः) स्पृहणीयाः (यस्य) (श्रियः) (दृशे) द्रष्टुम् (रयिः) धनम् (वीरवतः) वीरा विद्यन्ते यस्य तस्य (यथा) (अग्रे) (यज्ञस्य) सङ्गन्तव्यस्य व्यवहारस्य (शोचतः) पवित्रस्य ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । तस्यैव धनं सफलं येन न्यायेनोपार्जितं धर्म्ये व्यवहारे व्ययितं स्यात् ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो न्यायाने धन उपार्जित करून धर्मव्यवहारात खर्च करतो त्याचेच धन सत्कारणी लागते. ॥ ५ ॥