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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

नवं॒ नु स्तोम॑म॒ग्नये॑ दि॒वः श्ये॒नाय॑ जीजनम्। वस्वः॑ कु॒विद्व॒नाति॑ नः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

navaṁ nu stomam agnaye divaḥ śyenāya jījanam | vasvaḥ kuvid vanāti naḥ ||

पद पाठ

नव॑म्। नु। स्तोम॑म्। अ॒ग्नये॑। दि॒वः। श्ये॒नाय॑। जी॒ज॒न॒म्। वस्वः॑। कु॒वित्। व॒नाति॑। नः॒ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:15» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:18» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे संन्यासी लोग कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (नः) हमारे (वस्वः) धन के (कुवित्) बड़े भाग को (वनाति) सेवन करे उस (श्येनाय) श्येन के तुल्य पाखण्डियों के विनाश करनेवाले (अग्नये) अग्नि के समान पवित्र के लिये (दिवः) कामना की (नवम्) नवीन (स्तोमम्) प्रशंसा को मैं (नु) शीघ्र (जीजनम्) प्रकट करूँ ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो अतिथि लोग श्येन पक्षी के तुल्य शीघ्र चलनेवाले, पाखण्ड के नाशक, द्रव्य और विद्या के उपदेशक संन्यासधर्म युक्त हों, उनका गृहस्थ सत्कार करें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तेऽतिथयः कीदृशाः स्युरित्याह ॥

अन्वय:

यो नो वस्वः कुविद्वनाति तस्मै श्येनायेवाग्नये दिवो नवं स्तोममहं नु जीजनम् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नवम्) नवीनम् (नु) क्षिप्रम् (स्तोमम्) प्रशंसाम् (अग्नये) पावकवत्पवित्राय (दिवः) कामनायाः (श्येनाय) श्येन इव पाखण्डिहिंसकाय (जीजनम्) जनयेयम् (वस्वः) धनस्य (कुवित्) महत् (वनाति) सम्भजेत् (नः) अस्माकम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येऽतिथयः श्येनवच्छीघ्रगन्तारः पाखण्डहिंसका द्रव्यविद्योपदेशका यतयः स्युस्तान् गृहस्थाः सत्कुर्युः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे अतिथी श्येन पक्ष्याप्रमाणे शीघ्र चालणारे, पाखंडनाशक, द्रव्य व विद्येचे उपदेशक, संन्यासी असतील तर गृहस्थांनी त्यांचा सत्कार करावा. ॥ ४ ॥