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त्वम॑ग्ने शो॒चिषा॒ शोशु॑चान॒ आ रोद॑सी अपृणा॒ जाय॑मानः। त्वं दे॒वाँ अ॒भिश॑स्तेरमुञ्चो॒ वैश्वा॑नर जातवेदो महि॒त्वा ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne śociṣā śośucāna ā rodasī apṛṇā jāyamānaḥ | tvaṁ devām̐ abhiśaster amuñco vaiśvānara jātavedo mahitvā ||

पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। शो॒चिषा॑। शोशु॑चानः। आ। रोद॑सी॒ इति॑। अ॒पृ॒णाः॒। जाय॑मानः। त्वम्। दे॒वान्। अ॒भिऽश॑स्तेः। अ॒मु॒ञ्चः॒। वैश्वा॑नर। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। म॒हि॒ऽत्वा ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:13» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:16» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे सन्न्यासी किसके तुल्य क्या करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य वर्त्तमान तेजस्विन् सन्न्यासिन् ! आप जैसे अग्नि (शोशुचानः) शुद्ध करता और (जायमानः) उत्पन्न होता हुआ (शोचिषा) प्रकाश से (रोदसी) सूर्य भूमिको अच्छे प्रकार पूरित करता, वैसे हम लोगों को (त्वम्) आप (आ, अपृणाः) अच्छे प्रकार पूर्ण कीजिये। हे (वैश्वानर) सब मनुष्यों के नायक (जातवेदः) विद्या को प्राप्त विद्वन् ! (त्वम्) आप (महित्वा) अपनी महिमा से (देवान्) हम विद्वानों को (अभिशस्तेः) सम्मुख प्रशंसा करनेवाले दम्भी से (अमुञ्चः) छुड़ाइये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे अग्नि आप शुद्ध हुआ सब को शुद्ध करता है, वैसे संन्यासी लोग स्वयं पवित्र हुए सब को पवित्र करते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते सन्न्यासिनः किंवत् किं कुर्वन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वं यथाग्निः शोशुचानो जायमान शोचिषा रोदसी आपृणाति तथाऽस्माँस्त्वमापृणाः। हे वैश्वानर जातवेदस्त्वं महित्वाऽस्मान् देवानभिशस्तेरमुञ्चः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान सन्न्यासिन् (शोचिषा) प्रकाशेन (शोशुचानः) शोधयन् (आ) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अपृणाः) पूरय (जायमानः) उत्पद्यमानः (त्वम्) (देवान्) विदुषः (अभिशस्तेः) आभिमुख्येन स्वप्रशंसां कुर्वतो दम्भिनः (अमुञ्च) मोचय (वैश्वानर) विश्वेषु नरेषु राजमान (जातवेदः) जातविद्य (महित्वा) महिम्ना ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथाग्निः स्वयं शुद्धः सर्वांच्छोधयति तथैव सन्न्यासिनः स्वयं पवित्राचरणाः सन्तः सर्वान् पवित्रयन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा अग्नी स्वतः शुद्ध असून सर्वांना शुद्ध करतो तसे संन्यासी स्वतः पवित्र असून इतरांना पवित्र करतात. ॥ २ ॥