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प्राग्नये॑ विश्व॒शुचे॑ धियं॒धे॑ऽसुर॒घ्ने मन्म॑ धी॒तिं भ॑रध्वम्। भरे॑ ह॒विर्न ब॒र्हिषि॑ प्रीणा॒नो वै॑श्वान॒राय॒ यत॑ये मती॒नाम् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

prāgnaye viśvaśuce dhiyaṁdhe suraghne manma dhītim bharadhvam | bhare havir na barhiṣi prīṇāno vaiśvānarāya yataye matīnām ||

पद पाठ

प्र। अ॒ग्नये॑। वि॒श्व॒ऽशुचे॑। धि॒य॒म्ऽधे॑। अ॒सु॒र॒ऽघ्ने। मन्म॑। धी॒तिम्। भ॒र॒ध्व॒म्। भरे॑। ह॒विः। न। ब॒र्हिषि॑। प्री॒णा॒नः। वै॒श्वा॒न॒राय॑। यत॑ये। म॒ती॒नाम् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:13» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तीन ऋचावाले तेरहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में संन्यासी कैसे होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो (मतीनाम्) मनुष्यों के बीच (वैश्वानराय) सब मनुष्यों के नायक (विश्वशुचे) सब को शुद्ध करनेवाले (धियन्धे) बुद्धि को धारण करनेहारे (असुरघ्ने) दुष्ट कर्मकारियों को मारने वा तिरस्कार करनेवाले (अग्नये) अग्नि के तुल्य विद्यादि शुभ गुणों से प्रकाशमान (यतये) यत्न करनेवाले संन्यासी के लिये (बर्हिषि) सभा में (प्रीणानः) प्रसन्न हुआ राजा (भरे) संग्राम में (हविः) भोगने वा देने योग्य अन्न को जैसे (न) वैसे (मन्म) विज्ञान (धीतिम्) धर्म की धारणा को तुम लोग (प्र, भरध्वम्) धारण वा पोषण करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे गृहस्थो ! जो अग्नि के तुल्य विद्या और सत्य धर्म के प्रकाशक, अधर्म के खण्डन और धर्म के मण्डन से सब के शुद्धिकर्त्ता, बुद्धिमान्, निश्चित ज्ञान देनेवाले, अविद्वत्ता के विनाशक, मनुष्यों को विज्ञान और धर्म का धारण कराते हुए संन्यासी हों, उनके सङ्ग से सब तुम लोग बुद्धि को धारण कर निस्सन्देह होओ। जैसे राजा युद्ध की सामग्री को शोभित करता है, वैसे उत्तम संन्यासी जन सुख की सामग्री को शोभित करते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ संन्यासिनः कीदृशो भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! मतीनां मध्ये वैश्वानराय विश्वशुचे धियन्धेऽसुरघ्नेऽग्नये यतये बर्हिषि प्रीणानो राजा भरे हविर्न मन्म धीतिञ्च यूयं प्र भरध्वम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (अग्नये) अग्निरिव विद्यादिशुभगुणैः प्रकाशमानाय (विश्वशुचे) यो विश्वं सर्वं जगच्छोधयति तस्मै (धियन्धे) यो धियं दधाति तस्मै (असुरघ्ने) योऽसुरान् दुष्टकर्मकारिणो हन्ति तिरस्करोति तस्मै (मन्म) विज्ञानम् (धीतिम्) धर्मस्य धारणाम् (भरध्वम्) धरध्वं पोषयत वा (भरे) सङ्ग्रामे (हविः) दातव्यमत्तव्यमन्नादिकम् (न) इव (बर्हिषि) सभायाम् (प्रीणानः) प्रसन्नः (वैश्वानराय) विश्वेषां नराणां नायकाय (यतये) यतमानाय संन्यासिने (मतीनाम्) मनुष्याणां मध्ये ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे गृहस्था ! येऽग्निवद्विद्यासत्यधर्मप्रकाशका अधर्मखण्डनेन धर्ममण्डनेन सर्वेषां शुद्धिकराः प्रज्ञाः प्रमाप्रदा अविद्वत्ताविनाशका मनुष्याणां विज्ञानं धर्मधारणं च कारयन्तो यतयः संन्यासिनो भवेयुस्तत्सङ्गेन सर्वे यूयं प्रज्ञां धृत्वा निःसंशया भवत। यथा राजा युद्धस्य सामग्रीमलङ्करोति तथैव यतिवराः सुखस्य सामग्रीमलंकुर्वन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नीचा दृष्टांत देऊन संन्याशाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे गृहस्थांनो ! अग्नीप्रमाणे विद्या व सत्यधर्म प्रकाशक, अधर्माचे खंडन व धर्माचे मंडन करून सर्वांचे शुद्धिकर्ता, बुद्धिमान ज्ञानप्रपापक, अविद्या विनाशक, माणसांना विज्ञान व धर्म धारण करविणारे जे संन्यासी असतात त्यांच्या संगतीत राहून तुम्ही बुद्धी धारण करून संशयरहित बना, जसा राजा युद्धसामग्री सुशोभित करतो तसे उत्तम संन्यासी सुखाची सामग्री सुशोभित करतात. ॥ १ ॥