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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

स म॒ह्ना विश्वा॑ दुरि॒तानि॑ सा॒ह्वान॒ग्निः ष्ट॑वे॒ दम॒ आ जा॒तवे॑दाः। स नो॑ रक्षिषद्दुरि॒ताद॑व॒द्याद॒स्मान्गृ॑ण॒त उ॒त नो॑ म॒घोनः॑ ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa mahnā viśvā duritāni sāhvān agniḥ ṣṭave dama ā jātavedāḥ | sa no rakṣiṣad duritād avadyād asmān gṛṇata uta no maghonaḥ ||

पद पाठ

सः। म॒ह्ना। विश्वा॑। दुः॒ऽइ॒तानि॑। सा॒ह्वान्। अ॒ग्निः। स्त॒वे॒। दमे॑। आ। जा॒तऽवे॑दाः। सः। नः॒। र॒क्षि॒ष॒त्। दुः॒ऽइ॒तात्। अ॒व॒द्या॒त्। अ॒स्मान्। गृ॒ण॒तः। उ॒त। नः॒। म॒घोनः॑ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:12» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रेम से उपासना किया ईश्वर क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जगदीश्वर (दमे) घर में (अग्निः) अग्नि के तुल्य (जातवेदाः) उत्पन्न हुए पदार्थों में व्याप्त होकर विद्यमान (स्तवे) स्तुति में (मह्ना) महत्त्व से (साह्वान्) सहनशील (विश्वा) सब (दुरितानि) दुराचरणों को दूर करता है (सः) वह (अवद्यात्) निन्दनीय (दुरितात्) दुष्टाचार से (नः) हमारी (आ, रक्षिषत्) रक्षा करे (गृणतः) शुद्धि करते हुए हम लोगों की रक्षा करे (उत) और (मघोनः) बहुत धनवाले (नः) हमारी (सः) वह रक्षा करे ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे घर में प्रज्वलित किया अग्नि अन्धकार और शीत की निवृत्ति करता है, वैसे ही उपासना किया परमेश्वर अज्ञान और अधर्म्माचरण को दूर कर धर्म और विद्या ग्रहण में प्रवृत्ति कराके सम्यक् रक्षा करता है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रेम्णोपासित ईश्वरः किं करोतीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! जगदीश्वरो दमेऽग्निरिव जातवेदाः स्तवे मह्ना साह्वान् विश्वा दुरितानि दूरीकरोति सोऽवद्याद् दुरितान्न आ रक्षिषत्। गृणतोऽस्मान् न्यायाचरणाद्रक्षतु उतोऽपि मघोनो नोऽस्मान् स रक्षिषत् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (मह्ना) महत्त्वेन (विश्वा) सर्वाणि (दुरितानि) दुराचरणानि (साह्वान्) सोढा (अग्निः) पावक इव जगदीश्वरः (स्तवे) स्तवने (दमे) गृहे (आ) (जातवेदाः) यो जातेषु पदार्थेष्वभिव्याप्य विद्यते सः (सः) (नः) अस्मान् (रक्षिषत्) रक्षेत् (दुरितात्) दुष्टाचारात् (अवद्यात्) निन्दनीयात् (अस्मान्) (गृणतः) शुचिं कुर्वतः (उत) अपि (नः) अस्मान् (मघोनः) बहुधनयुक्तान् ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा गृहे प्रज्वालितोऽग्निरन्धकारं शीतं च निवर्त्तयति तथैवोपासितः परमेश्वरोऽज्ञानमधर्माचरणं च दूरीकृत्य धर्मे विद्याग्रहणे च प्रवर्त्तयित्वा सम्यग्रक्षति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा घरात प्रज्वलित केलेला अग्नी अंधकार व शीत यांची निवृत्ती करतो तसाच उपासना केलेला ईश्वर अज्ञान व अधर्माचरण दूर करून धर्म व विद्या ग्रहण करण्याची प्रवृत्ती उत्पन्न करवून सम्यक रक्षण करतो. ॥ २ ॥