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आग्ने॑ वह हवि॒रद्या॑य दे॒वानिन्द्र॑ज्येष्ठास इ॒ह मा॑दयन्ताम्। इ॒मं य॒ज्ञं दि॒वि दे॒वेषु॑ धेहि यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āgne vaha haviradyāya devān indrajyeṣṭhāsa iha mādayantām | imaṁ yajñaṁ divi deveṣu dhehi yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। अ॒ग्ने॒। व॒ह॒। ह॒विः॒ऽअद्या॑य। दे॒वान्। इन्द्र॑ऽज्येष्ठासः। इ॒ह। मा॒द॒य॒न्ता॒म्। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। दि॒वि। दे॒वेषु॑। धे॒हि॒। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:11» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:14» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वि विद्वन् ! आप (अद्याय) भोगने योग्य वस्तु के लिये (देवान्) विद्वानों (हविः) भोजन योग्य अन्न को (आ, वह) अच्छे प्रकार प्राप्त कीजिये उससे (इह) इस समय (इन्द्रज्येष्ठासः) जिन में राजा श्रेष्ठ है वे मनुष्य (मादयन्ताम्) आनन्दित करें आप (इमम्) इस यज्ञम् धर्मयुक्त व्यवहार को (दिवि) द्योतनस्वरूप परमात्मा और (देवेषु) विद्वानों में (धेहि) धारण करो, हे विद्वानो ! (यूयम्) तुम लोग (स्वस्तिभिः) सुखों से (नः) हमारी (सदाः) सदा (पात) रक्षा करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वानो ! जैसे अग्नि सूर्यादिरूप से सब को आनन्दित करता है, वैसे इस जगत् में तुम सब लोगों की रक्षा कर और कर्त्तव्य को कराके अभीष्ट लोगों को प्राप्त कराओ ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों का कृत्य वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह ग्यारहवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वमद्याय देवान् हविरावह तेनेहेन्द्रज्येष्ठासो जना मादयन्तां त्वमिमं यज्ञं दिवि देवेषु धेहि हे विद्वांसो ! यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (अग्ने) वह्निरिव विद्वन् (वह) सर्वतः प्रापय (हविः) अत्तुमर्हम् (अद्याय) अत्तुं योग्याय (देवान्) विदुषः (इन्द्रज्येष्ठासः) इन्द्रो राजा ज्येष्ठो येषान्ते (इह) अस्मिन्समये (मादयन्ताम्) आनन्दयन्तु (इमम्) वर्त्तमानम् (यज्ञम्) धर्म्यं व्यवहारम् (दिवि) द्योतनात्मके परमात्मनि (देवेषु) विद्वत्सु (धेहि) यूयम् (पात) (स्वस्तिभिः) सुखैः (सदा) (नः) अस्मान् ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! यथाग्निः सूर्यादिरूपेण सर्वानानन्दयति तथाऽत्र यूयं सर्वान् संरक्ष्य कर्त्तव्यं कारयित्वेष्टान् भोगान् प्रापयतेति ॥५॥ अत्राग्निविद्वत्कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकादशं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो ! जसा अग्नी सूर्य इत्यादींच्या रूपाने सर्वांना आनंदित करतो तसेच या जगात तुम्ही सर्व लोकांचे रक्षण करून कर्तव्य करून अभीष्ट भोग प्राप्त करावा. ॥ ५ ॥