पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः, च, सोम, च) हे विद्युच्छक्तिप्रधान तथा ऐश्वर्यप्रधान परमात्मन् ! (प्रतिचक्ष्व, विचक्ष्व) आप उपदेश करें तथा विविधरूप से उपदेश करें, ताकि हम (जागृतम्) आपकी जागृति से उद्बुद्ध होकर (रक्षोभ्यः, वधम्) राक्षसों को मारें और (अस्यतम्, अशनिम्, यातुमद्भ्यः) दण्डनीय राक्षसों के लिये वज्रप्रहार करें ॥२५॥
भावार्थभाषाः - यह रक्षोघ्न सूक्त है, जिसके अर्थ ये हैं कि जिसमें राक्षसों का हनन हो, उसका नाम ‘रक्षोघ्न’ है। वास्तव में इस सूक्त में अन्यायकारी राक्षसों के हनन के लिए अनन्त प्रकार कथन किये गये हैं और वेदानुयायी आस्तिकों के वैदिक यज्ञ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए रक्षा के अनेकशः उपाय वर्णन किये हैं, जिनको पढ़कर और जिनके अनुष्ठान से पुरुष वास्तव में आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक इन तीनों तापों से रहित हो सकता है। सच तो यह है कि आजकल वेदाभिमानिनी आर्यजाति अपने संकटों की निवृत्ति के लिए अनेक प्रकार के संकटमोचनों का पाठ करती है। यदि वह रक्षोघ्नादि सच्चे संकटमोचन सूक्तों का पाठ और अनुष्ठान करे, तो इसके संकट निवृत्त होने में तनिक भी सन्देह नहीं ॥ जो कई एक लोग यह शङ्का करते हैं कि वेदों का उच्चोद्येश्य तो यह है कि “मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्” ॥ यजु. ३६।१८ ॥ प्राणिमात्र को मित्रता की दृष्टि से देखो, तो फिर ऐसे शान्तिधर्मप्रधान वेदों में राक्षसों के हनन करनेवाले सूक्तों का क्या प्रसङ्ग ? इसका उत्तर यह है कि वेद सब धर्मों का निरूपण करता है। वस्तुतः वेद की शिक्षा का फल संसार में शान्ति का प्रचार करना है, परन्तु जब कोई इस शान्तिरूपी यज्ञ में आकर विघ्न डाले, तो उसकी निवृत्ति के लिए वेद में वीरधर्म का भी उपदेश है, परन्तु यह धर्म वैदिक लोगों के मत में मुख्यस्थानी नहीं, किन्तु शरीर में बाहु के समान रक्षास्थानी है। इसी अभिप्राय से वेद में कहा है कि “ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्” ॥ यजु. ३१।११॥ ब्राह्मण ब्रह्मवेत्ता विद्वान् इस विराट् में मुख के समान है। इस प्रकार शान्तिप्रधान ब्रह्मविद्या ही वेदों का मुख्योद्देश्य है ॥२५॥ यह १०४वाँ सूक्त, छठा अनुवाक और नववाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥