पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रासोमा) हे दण्ड और न्यायरूप शक्तिद्वयप्रधान परमात्मन् ! (अघशंसम्) जो पापमार्ग को इच्छा बतलाता है अथवा ईश्वराज्ञाविरुद्ध कामों की प्रशंसा करता है, (सम्, अघं) जो पापयुक्त है, उसका (अभि) निरादर करो। (तपुः) जो दूसरों को दुःख देनेवाले हैं, वे (ययस्तु) परिक्षीण हो जायें, जैसे कि (चरुः, अग्निवान्, इव) चरु सामग्री अग्नि पर भस्मीभूत हो जाती है। (ब्रह्मद्विषे) जो वेद के द्वेषी हैं, (क्रव्यादे) तथा जो हिंसक हैं, (घोरचक्षसे) जो क्रूर प्रकृतिवाले हैं, (किमीदिने) हर एक बात में शक करनेवाले हैं, उनमें (अनवायम्, द्वेषो, धत्तम्) हमारा निरन्तर द्वेषभाव उत्पन्न कराइये ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो लोग वेदद्वेषी और अघायु पुरुषों के दमन करने का भाव नहीं रखते, वे परमात्मा की आज्ञा को यथावत् पालन नहीं कर सकते, इसलिये परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे पुरुषो ! तुम पापात्मा धर्मानुष्ठानविहीन धर्मद्वेषी पुरुषों से सदैव ग्लानि करो और जो केवल कुतर्कपरायण होकर अहर्निश धर्मनिन्दा में तत्पर रहते हैं, उनको भी द्वेषबुद्धि से अपने से दूर करो। तात्पर्य यह है कि वैदिक लोगों को चाहिये कि वे सत्कर्मों और धर्मरत पुरुषों का सम्मान करें, औरों का नहीं ॥२॥