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इन्द्रा॑सोमा॒ तप॑तं॒ रक्ष॑ उ॒ब्जतं॒ न्य॑र्पयतं वृषणा तमो॒वृध॑: । परा॑ शृणीतम॒चितो॒ न्यो॑षतं ह॒तं नु॒देथां॒ नि शि॑शीतम॒त्रिण॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrāsomā tapataṁ rakṣa ubjataṁ ny arpayataṁ vṛṣaṇā tamovṛdhaḥ | parā śṛṇītam acito ny oṣataṁ hataṁ nudethāṁ ni śiśītam atriṇaḥ ||

पद पाठ

इन्द्रा॑सोमा । तप॑तम् । रक्षः॑ । उ॒ब्जत॑म् । नि । अ॒र्प॒य॒त॒म् । वृ॒ष॒णा॒ । त॒मः॒ऽवृधः॑ । परा॑ । शृ॒णी॒त॒म् । अ॒चितः॑ । नि । ओ॒ष॒त॒म् । ह॒तम् । नु॒देथा॑म् । नि । शि॒शी॒त॒म् । अ॒त्रिणः॑ ॥ ७.१०४.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:104» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:5» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब इस मण्डल की समाप्ति करते हुए परमात्मा के दण्ड और न्याय रक्षोघ्नसूक्त द्वारा वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रासोमा) हे दण्ड और न्यायरूप शक्तिद्वयप्रधान परमात्मन् ! आप (रक्षः) ‘रक्ष्यते यस्मात्तद्रक्षः’ जिन अनाचारियों से न्यायनियमानुसार रक्षा की आवश्यकता पड़े, उनका नाम यहाँ राक्षस है। राक्षसों को (तपतम्) तपाओ, दमन करो (उब्जतम्) मारो, (न्यर्पयतम्) नीचता को प्राप्त करो। (वृषणा) हे कामनाओं की वर्षा करनेवाले परमात्मा ! (तमोवृधः) जो माया से बढ़नेवाले हैं, उनको (पराशृणीत) चारों तरफ से नाश करो। (अचितः) जो ऐसे जड़ हैं, जो समझाने से भी नहीं समझते, उनको (न्योषतम्) भस्मीभूत कर डालो, (हतम्) नाश करो, (नुदेथाम्) दूर करो, (अत्रिणः) जो अन्याय से भक्षण करनेवाले हैं, उनको (निशिशीतम्) घटाओ ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे परमात्मन् ! जो राक्षसी वृत्ति से प्रजा में अनाचार फैलाते हैं, आप उनका नाश करें। यहाँ राक्षस कोई जातिविशेष नहीं, किन्तु जिनसे प्रजा में शान्ति और न्यायनियम का भङ्ग होता है, उन्हीं का नाम राक्षस है। तात्पर्य यह है कि परमात्मा ने जीवों की प्रार्थना द्वारा इस बात को प्रकट किया है कि दुष्ट दस्युओं के नाश करने का भाव आप अपने हृदय में उत्पन्न किया करें। जब आपके शुद्ध हृदय से यह प्रबल प्रवाह उत्पन्न होगा, तो पापपङ्करूपी दस्युदल उसमें अवश्य बह जायगा। वा यों कहो कि इस सूक्त में परमात्मा ने शील से अनाचार के दूर करने का उपदेश किया। जो लोग सुशीलतादि दिव्यगुणसम्पन्न हैं, वे ही ‘देवता’ और जो लोग सुशीलतारहित केवल अन्याय से अपनी प्राणयात्रा करते हैं अर्थात् ‘असुषु रमन्ते ये ते असुराः’ जो लोग केवल प्राणों की रक्षा ही में रत हों, उनका नाम यहाँ ‘असुर’ है, यही अर्थ सर्वत्र समझ लेना चाहिये ॥१॥
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आर्यमुनि

सम्प्रति मण्डलान्तिमसूक्ते परमात्मनो दण्डन्यायौ रक्षोघ्नसूक्तेन वर्ण्येते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रासोमा) हे दण्डन्यायात्मकशक्तिद्वयप्रधान परमात्मन् ! भवान् (रक्षः) राक्षसान् (तपतम्) तापयतु (उब्जतम्) मारयतु (न्यर्पयतम्) अधोगतिं प्रापयतु (वृषणा) हे कामनावर्षणशील परमात्मन् ! (तमोवृधः) मायया वर्द्धमानान् (परा, शृणीत) परितो हिनस्तु (अचितः) दुर्बुद्धीन् (न्योषतम्) भस्मसात् करोतु (हतम्) नाशयतु (नुदेथाम्) अपिनयतु (अत्रिणः) अदत्तभक्षणशीलान् (निशिशीतम्) नश्यतु तनूकरोतु ॥१॥