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किमित्ते॑ विष्णो परि॒चक्ष्यं॑ भू॒त्प्र यद्व॑व॒क्षे शि॑पिवि॒ष्टो अ॑स्मि । मा वर्पो॑ अ॒स्मदप॑ गूह ए॒तद्यद॒न्यरू॑पः समि॒थे ब॒भूथ॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kim it te viṣṇo paricakṣyam bhūt pra yad vavakṣe śipiviṣṭo asmi | mā varpo asmad apa gūha etad yad anyarūpaḥ samithe babhūtha ||

पद पाठ

किम् । इत् । ते॒ । वि॒ष्णो॒ इति॑ । प॒रि॒ऽचक्ष्य॑म् । भू॒त् । प्र । यत् । व॒व॒क्षे । शि॒पि॒ऽवि॒ष्टः । अ॒स्मि॒ । मा । वर्पः॑ । अ॒स्मत् । अप॑ । गू॒हः॒ । ए॒तत् । यत् । अ॒न्यऽरू॑पः । स॒मि॒थे । ब॒भूथ॑ ॥ ७.१००.६

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:100» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:25» मन्त्र:6 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विष्णो) हे व्यापक परमेश्वर ! (किं ते) क्या तुम्हारा वह रूप कथन करने योग्य है, जिसको तुम स्वयं (शिपिविष्टः अस्मि) कि मैं तेजोमय हूँ, अपनी वेदवाणी में कथन करते हो, अर्थात् वह स्वयं सिद्ध है, किसी के कथन की अपेक्षा नहीं रखता और (यत्) जो (अन्यरूपः) दूसरा रूप जो (समिथे) संग्राम में (बभूथ) होता है, (एतत्, वर्पः) इस रूप को (अस्मत्) हमसे (मा) मत (अपगूहः) छिपा ॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा का ‘स्वप्रकाशतेजोमयरूप’ सृष्टि की रचना और पालने से सबको प्रसिद्ध है, अर्थात् उसकी विचित्र रचना से प्रत्येक सूक्ष्मदर्शी पुरुष जानता है कि यह विविध रचना किसी सर्वज्ञ तेजोमय परमात्मा से बिना कदापि नहीं हो सकती।दूसरी ओर जो उसका ‘मन्युमयरूप’ है अर्थात् दुष्टों को दमन करनेवाला ओज है, वह शीघ्र सबकी समझ में नहीं आता, इसलिये इस मन्त्र में यह बतलाया गया है कि जिज्ञासु जन इसको भी समझने का यत्न करें।(बभूथ) क्रिया यहाँ भूतकाल की बोधक नहीं, किन्तु वैदिक व्याकरण के नियम से तीनों कालों का बोधन करती है, अर्थात् परमात्मा तीनों कालों में रुद्ररूप से दुष्टों का दमन करते हैं।और उस रूप के वर्णन करने का प्रकरण यहाँ इसलिये बतलाया है कि आगे सातवें अध्याय में उस रूप का विशेषरूप से वर्णन करना है।कई एक लोग इन दो रूपों के ये अर्थ करते हैं कि एक विष्णु का न देखने योग्य और न सुनने योग्य रूप है, अर्थात् ऐसा अश्लील लज्जाकर है, जिसका भले आदमी नाम लेने से भी लज्जा करते हैं।या यों कहो कि शेप नाम उनके मत में मनुष्य के प्रजा-उत्पादक इन्द्रिय का है। उस जैसे मुखवाले को ‘शिपिविष्टः’ कहते हैं, इसलिये उसके देखने का यहाँ निषेध किया है। यह अर्थ सायणाचार्य्य, महीधरादि सबने किये हैं, जिनकी विशेष समीक्षा करने से ग्रन्थ बढ़ता है, इसलिये इतना ही कहते हैं कि यह उनकी अत्यन्त भूल है, क्योंकि निरु० ५।८ में शेप के अर्थ स्वयं निरुक्तकार ने किये हैं कि ‘शेप’ नाम प्रकाश का है। प्रकाश से आविष्ट का नाम ‘शिपिविष्ट’ है।हमें यहाँ इनके ऐसे घृणित रूप मानने का उतना शोक नहीं, जितना प्रोफेसर मैक्समूलर, विलसन, ग्रिफिथ और सर रमेशचन्द्रदत्त के ऐसे लज्जाकर अर्थों की ज्यों की त्यों नकल कर देने का है। ये लोग यदि इस मन्त्र के भाव पर तनिक भी ध्यान देते, तो ऐसे घृणित अर्थ कदापि न करते।और जो यह कहा जाता है कि निरुक्त के कर्त्ता ने स्वयं यहाँ लज्जाजनक अर्थ किये हैं और यह कहा है कि विष्णु की हँसी उड़ाने के लिये दूसरा लज्जाप्रधान नाम रखा है। यह कथन उन लोगों का है, जो निरुक्तकार के आशय को न समझ कर अन्यथा टीका-टिप्पणी करते हैं, अस्तु ॥मुख्य बात यह है कि ‘शिपिविष्ट’ नाम ज्योतिःस्वरूप परमात्मा का है, क्योंकि ‘शिपि’ नाम ज्योति का स्वयं निरुक्तकार ने माना है, यह हम अनेक स्थलों में दर्शा आये हैं ॥६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (विष्णो) हे विभो ! (किम्, ते) किं तव रूपं (परिचक्ष्यम्, भूत्) कथनीयमस्ति (यद्, ववक्षे, शिपिविष्टः, अस्मि) यत् त्वं स्वयमवोचत् अहं तेजोमयोऽस्मि, (यत्, अन्यरूपः, समिथे, बभूथ) यच्च अन्यरूपवान् सङ्ग्रामे भवसि (एतत्) इदं (वर्पः, अस्मत्, मा, अपगूहः) रूपं मत्तो नान्तर्धापय ॥६॥