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प्र तत्ते॑ अ॒द्य शि॑पिविष्ट॒ नामा॒र्यः शं॑सामि व॒युना॑नि वि॒द्वान् । तं त्वा॑ गृणामि त॒वस॒मत॑व्या॒न्क्षय॑न्तम॒स्य रज॑सः परा॒के ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra tat te adya śipiviṣṭa nāmāryaḥ śaṁsāmi vayunāni vidvān | taṁ tvā gṛṇāmi tavasam atavyān kṣayantam asya rajasaḥ parāke ||

पद पाठ

प्र । तत् । ते॒ । अ॒द्य । शि॒पि॒ऽवि॒ष्ट॒ । नाम॑ । अ॒र्यः । शं॒सा॒मि॒ । व॒युना॑नि । वि॒द्वान् । तम् । त्वा॒ । गृ॒णा॒मि॒ । त॒वस॑म् । अत॑व्यान् । क्षय॑न्तम् । अ॒स्य । रज॑सः । प॒रा॒के ॥ ७.१००.५

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:100» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:25» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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आर्यमुनि

अब निम्नलिखित मन्त्र में वेद स्वयं विष्णु के अर्थ ईश्वर के करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (शिपिविष्ट) हे तेजोमय परमात्मन् ! “शिपयो रश्मयः” ॥ निरु० ५।८॥ (यत्) जिसलिये (ते) तुम्हारा (अर्यः) अर्य यह नाम है। “ऋच्छति गच्छति सर्वत्र व्याप्नोतीत्यर्य्यः” जो सर्वव्यापक हो, उसको अर्य कहते हैं। (तं, त्वा) ऐसे तुमको (गृणामि) मैं ग्रहण करता हूँ, तुम (तवसं) सर्वोपरि वृद्धियुक्त हो, (अस्य) इस (रजसः) रजोगुणयुक्त ब्रह्माण्ड के (पराके) मध्य में (अतव्यान्) निरन्तर गमन करनेवाले लोक-लोकान्तरों में भी आप (क्षयन्तं) निवास कर रहे हैं और सब प्रकार के (वयुनानि) ज्ञानों के (विद्वान्) आप जाननेवाले हैं, इसीलिये मैं आपकी (प्रशंसामि, अद्य) प्रशंसा करता हूँ ॥
भावार्थभाषाः - विष्णु, अर्य्य, व्यापक ये तीनों एक ही पदार्थ के नाम हैं। विष्णु को इस मन्त्र में अर्य्य कहा है और अर्य्य परमात्मा का मुख्य नाम है। इस विषय में प्रमाण यह है कि “राष्ट्री। अर्यः। नियुत्वान्। इनइन इति चत्वारीश्वरनामानि ॥” निघं ३।२२॥ राष्ट्री, अर्य्य, नियुत्वान्, इनइन ये चारों ईश्वर के नाम हैं। अस्तु। जो लोग “इदं विष्णुर्विचक्रमे” इत्यादि मन्त्रों में विष्णु शब्द के अर्थ सूर्य्य किया करते हैं, उनको इस मन्त्र के अर्थ से शिक्षा लेनी चाहिये, क्योंकि उक्त मन्त्र में विष्णु का अर्थ अर्थात् व्यापक ईश्वर कथन किया है। इससे स्पष्ट है कि विष्णु शब्द के अर्थ व्यापक ईश्वर के ही हैं, किसी अन्य जड़ वा अल्पज्ञ वस्तु के नहीं ॥५॥
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आर्यमुनि

अथाधोलिखितमन्त्रे वेदो भगवान् विष्णुमीश्वरवाच्यं वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः - (शिपिविष्ट) शिपिभी रश्मिभिर्विष्ट इति ‘शिपिविष्टः’ हे तेजोमय ! (यत्) यतः (ते) तव (अर्यः, नाम) अर्य इति नामास्ति (तम्, त्वा) तादृशम्, त्वां (गृणामि) स्तौमि (तवसम्) स्तवनीयं प्रवृद्धं (रजसः) रजोगुणयुक्ते (पराके) ब्रह्माण्डे (अतव्यान्) निरन्तरगमनशीलेषु विविधलोकेषु (क्षयन्तम्) निवससि (वयुनानि) सर्वज्ञानानि (विद्वान्) जानासि (प्रशंसामि, अद्य) अतो भवन्तं स्तौमि ॥५॥