पदार्थान्वयभाषाः - (देवः) दिव्यशक्तियुक्त उक्त परमात्मा (एतां) इस (पृथिवीं) पृथिवी को (त्रिः) तीन प्रकार से (विचक्रमे) रचता है, (शतर्चसं) जिस पृथिवी में सैकड़ों प्रकार की (अर्चिः) ज्वालायें हैं, (महित्वा) जिसका बहुत विस्तार है और इस (स्थविरस्य) प्राचीन पुरुष का नाम इसीलिये (विष्णुः) विष्णु है, क्योंकि (तवसः, तवीयान्) यह तेरा स्वामी है, इसलिये इसका नाम विष्णु है अथवा यह सर्वव्यापक होने से सर्वस्वामी है, इसलिये इसका नाम विष्णु है ॥३॥
भावार्थभाषाः - तीन प्रकार से पृथिवी को रचने के अर्थ ये हैं कि प्रकृति के सत्त्वादि गुणोंवाले परमाणुओं को परमात्मा ने तीन प्रकार से रखा। तामस-भाववाले परमाणु, पृथिवी पाषाणादिरूप से, राजस नक्षत्रादिरूप से और दिव्य अर्थात् द्युलोकस्थ पदार्थों को सात्त्विक भाव से, ये तीन प्रकार की गतियें हैं, इसी का नाम ‘त्रेधा निधदे पदं’ है, इसी भाव को “इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निधदे पदम्” ॥ मं. १।२२।१७॥ में वर्णन किया है। जो कई एक लोग इसके अर्थ ये करते हैं कि विष्णु ने वामनावतार को धारण करके तीन पैर से पृथिवी को नापा, इसका उत्तर यह है कि इसी विष्णुसूक्त में “तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः” ॥ मं. १।२२।२०॥ में इस पद को चक्षु की निराकार ज्योति के समान निराकार माना है। अन्य युक्ति यह है कि विष्णु का स्वरूपपद निराकार होने से एक कथन किया है, तीन संख्या केवल प्रकृतिरूपी पद में मानी है, विष्णु के पद में नहीं, फिर निराकार विष्णु का देह धर कर साकार पद कैसे ? सबसे प्रबल प्रमाण इस विषय में यह है कि इसी प्रसङ्ग में सूक्त ९९वें के दूसरे मन्त्र में यह कथन किया है कि “न ते विष्णो जायमानो न जातो देव महिम्नः परमन्तमाप” हे देव ! तुम्हारी महिमा के अन्त को कोई नहीं पा सकता, क्योंकि तुमने ही लोक-लोकान्तरों को धारण किया हुआ है, तो फिर जब वह सर्वाधिष्ठान अर्थात् सब भुवनों का आश्रय है, तो उसके पैरों को अन्य वस्तुएँ कैसे आश्रय दे सकती हैं ॥३॥