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नू मर्तो॑ दयते सनि॒ष्यन्यो विष्ण॑व उरुगा॒याय॒ दाश॑त् । प्र यः स॒त्राचा॒ मन॑सा॒ यजा॑त ए॒ताव॑न्तं॒ नर्य॑मा॒विवा॑सात् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nū marto dayate saniṣyan yo viṣṇava urugāyāya dāśat | pra yaḥ satrācā manasā yajāta etāvantaṁ naryam āvivāsāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नु । मर्तः॑ । द॒य॒ते॒ । स॒नि॒ष्यन् । यः । विष्ण॑वे । उ॒रु॒ऽगा॒याय॑ । दाश॑त् । प्र । यः । स॒त्राचा॑ । मन॑सा । यजा॑ते । ए॒ताव॑न्तम् । नर्य॑म् । आ॒ऽविवा॑सात् ॥ ७.१००.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:100» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:25» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब परमात्मा सुमति अर्थात् शुभ नीति का उपदेश करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो पुरुष (उरुगायाय) अत्यन्त भजनीय (विष्णवे) व्यापक परमात्मा की (सनिष्यन्) प्राप्ति के लिये इच्छा (दशत्) करते हैं, (नु) शीघ्र ही वे मनुष्य उसको (दयते) प्राप्त होते हैं और जो (सत्राचा) शुद्ध मन से (यजाते) उस परमात्मा की उपासना करता है, वह (एतावन्तं, नर्य्यं) उक्त परमात्मा का जो सब प्राणिमात्र का हित करनेवाला है (आविवासात्) अवश्यमेव प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - परमात्मप्राप्ति के लिये सबसे प्रथम जिज्ञासा अर्थात् प्रबल इच्छा उत्पन्न होनी चाहिये। तदनन्तर जो पुरुष निष्कपटभाव से परमात्मपरायण होता है, उस पुरुष को परमात्मा का साक्षात्कार अर्थात् यथार्थ ज्ञान अवश्यमेव होता है ॥१॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

यशस्वी दान

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ- (यः) = जो (मर्त्तः) = मनुष्य, (सनिष्यन्) = दान देने की इच्छा से (दयते) = दान देता, दया करता है वही (उरु-गायाय) = बहुतों से स्तुतियोग्य (विष्णवे) = परमेश्वर के निमित्त (दाशत्) = दान करे ! (यः) = जो मनुष्य (सत्राचा मनसा) = सत्यनिष्ठ मन से (प्र यजाते) = दान करता वा देव पूजा करता है वह (एतावन्तं) = उतना ही (नर्यम्) = मनुष्यों के हित की (आ विवासत्) = सेवा करता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- जब मनुष्य दान देना चाहे तो मन में श्रद्धा रखकर ही देवें केवल दिखावे के लिए न देवे। वह अपने हृदय में यह भाव उत्पन्न करे कि ईश्वर सर्वव्यापक है, ये धन उसीका है अतः उसी को समर्पित है। उसी की प्रजाओं- जीवों के लिए मैं दे रहा हूँ। यह दान देवपूजा कहलाएगा। ऐसे निरभिमानी दानी की लोग प्रशंसा करेंगे।
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आर्यमुनि

अथ परमात्मना सुमतिरुपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः, मर्तः) यो जनः (उरुगायाय) अतिभजनीयाय (विष्णवे) व्यापकायेश्वराय (सनिष्यन्) कामयमानो (दाशत्) प्रमाणं करोति तमेव, (नु) शीघ्रं स नरः (दयते) प्राप्नोति यश्च (सत्राचा मनसा) शुद्धमनसा (यजाते) तं समर्चेत् (एतावन्तम्, नर्यम्) सर्वप्रणेतारं सः (आविवासात्) प्राप्नोत्येव ॥१॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - That mortal for sure finds success and fulfilment who, while he loves Vishnu, lord omnipresent, gives in charity in service to the lord, and who, with concentrated mind, meditates, worships and exalts the lord of such universal love of infinite measure.