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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

प्रेद्धो॑ अग्ने दीदिहि पु॒रो नोऽज॑स्रया सू॒र्म्या॑ यविष्ठ। त्वां शश्व॑न्त॒ उप॑ यन्ति॒ वाजाः॑ ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

preddho agne dīdihi puro no jasrayā sūrmyā yaviṣṭha | tvāṁ śaśvanta upa yanti vājāḥ ||

पद पाठ

प्रऽइ॑द्धः। अ॒ग्ने॒। दी॒दि॒हि॒। पु॒रः। नः॒। अज॑स्रया। सू॒र्म्या॑। य॒वि॒ष्ठ॒। त्वाम्। शश्व॑न्तः। उप॑। य॒न्ति॒। वाजाः॑ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:1» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसको कैसे प्रकट करे, इस विषयको अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यविष्ठ) अत्यन्त जवान (अग्ने) अग्नि के तुल्य प्रकाशित बुद्धिवाले विद्वान् ! जो (प्रेद्धः) अच्छे प्रकार जलता हुआ अग्नि (अजस्रया) निरन्तर प्रवृत्त क्रिया से (सूर्म्या) अच्छे छिद्र सहित शरीरादि मूर्त्ति वा कला से (नः) हम को और (त्वाम्) तुम को प्राप्त है जिस को (शश्वन्तः) प्रवाह से नित्य आदि पृथिव्यादि (वाजाः) प्राप्त होने योग्य पदार्थ (उप, यन्ति) समीप प्राप्त होते हैं उसको (पुरः) पहिले वा सामने विद्या और क्रिया से (दीदिहि) प्रदीप्त कर ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वानो ! जो अग्नि अनादिस्वरूप प्रकृति के अवयवों में विद्युद्रूप से व्याप्त है, जिसकी विद्या से बहुत से व्यवहार सिद्ध होते हैं, उसको निरन्तर प्रकाशित कर धनधान्यादि ऐश्वर्य्य को प्राप्त होओ ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तं कथं जनयेदित्याह ॥

अन्वय:

हे यविष्ठाग्ने यः प्रेद्धोऽग्निरजस्रया सूर्म्या नोऽस्माँस्त्वां च प्राप्तोऽस्ति यं शश्वन्तो वाजा उप यन्ति तं पुरो विद्याक्रियाभ्यां दीदिहि ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रेद्धः) प्रकर्षेणेद्धः प्रदीप्तः (अग्नेः) पावक इव प्रकाशितप्रज्ञ (दीदिहि) प्रदीपय (पुरः) पुरस्तात् (नः) अस्मान् (अजस्रया) निरन्तरया क्रियया (सूर्म्या) सच्छिद्रया मूर्त्त्या कलया वा (यविष्ठ) अतिशयेन युवन् (त्वाम्) (शश्वन्तः) अनादिभूताः प्रवाहेण नित्याः पृथिव्यादयः (उप) (यन्ति) (वाजाः) प्राप्तव्याः पदार्थाः ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! योऽग्निरनादिभूतेषु प्रकृत्यवयवेषु विद्युद्रूपेण व्याप्तोऽस्ति यस्य विद्यया बहवोः व्यवहाराः सिध्यन्ति तं सततं प्रकाश्य धनधान्यादिकमैश्वर्यं प्राप्नुत ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो ! जो अग्नी अनादी स्वरूपाने प्रकृतीच्या अवयवात विद्युतरूपाने व्याप्त आहे, ज्याच्या विद्येमुळे पुष्कळ व्यवहार सिद्ध होतात त्याला निरंतर प्रकाशित करून धनधान्य इत्यादी ऐश्वर्य प्राप्त करा. ॥ ३ ॥