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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

सेद॒ग्निर॒ग्नीँरत्य॑स्त्व॒न्यान्यत्र॑ वा॒जी तन॑यो वी॒ळुपा॑णिः। स॒हस्र॑पाथा अ॒क्षरा॑ स॒मेति॑ ॥१४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sed agnir agnīm̐r aty astv anyān yatra vājī tanayo vīḻupāṇiḥ | sahasrapāthā akṣarā sameti ||

पद पाठ

सः। इत्। अ॒ग्निः। अ॒ग्नीन्। अति॑। अ॒स्तु॒। अ॒न्यान्। यत्र॑। वा॒जी। तन॑यः। वी॒ळुऽपा॑णिः। स॒हस्र॑ऽपाथाः। अ॒क्षरा॑। स॒म्ऽएति॑ ॥१४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:1» मन्त्र:14 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:25» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह अग्नि कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (वाजी) वेगबलादियुक्त (वीळुपाणिः) बलरूप जिस के हाथ हैं (तनयः) पुत्र के तुल्य (अग्निः) अग्नि (यत्र) जहाँ (अन्यान्) अन्य (अग्नीन्) अग्नियों को प्राप्त (अत्यस्तु) अत्यन्त हो (सः, इत्) वही (सहस्रपाथाः) अतोल =अतुलनीय अन्नादि पदार्थोंवाला (अक्षरा) जलों को (समेति) सम्यक् प्राप्त होता है, वहाँ उसको तुम लोग सिद्ध करो ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे सुपुत्र पितरों को प्राप्त होता है, वैसे अग्नि अग्नियों को प्राप्त होता है तथा प्रसिद्ध होकर अपने स्वरूप कारण को प्राप्त होकर स्थिर होता है, जो लोग अभिव्याप्त बिजुली के प्रकट करने को जानते हैं, वे असंख्य ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सोऽग्निः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो वाजी वीळुपाणिस्तनय इवाग्निर्यत्राऽन्यानग्नीन् प्राप्तोऽत्यस्तु स इत् सहस्रपाथा अक्षरा समेति तं यूयं साध्नुत ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (इत्) एव (अग्निः) पावकः (अग्नीन्) (अति) (अस्तु) (अन्यान्) भिन्नान् (यत्र) (वाजी) वेगबलादियुक्तः (तनयः) पुत्रः (वीळुपाणिः) वीळु बलं पाणयो यस्य सः (सहस्रपाथाः) सहस्राण्यमितानि पाथांस्यन्नादीनि यस्य सः (अक्षरा) उदकानि। अत्राकारादेशः। अक्षरा इत्युदकनाम। (निघं०१.१२) (समेति) सम्यगेति ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा सुपुत्रः पितॄन् प्राप्नोति तथाऽग्निरग्नीन् प्राप्नोति प्रसिद्धो भूत्वा स्वस्वरूपं कारणं प्राप्य स्थिरो भवति येऽभिव्याप्तां विद्युतं प्रकटयितुं विजानन्ति तेऽसंख्यमैश्वर्यमाप्नुवन्ति ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा पितरांना सुपुत्र प्राप्त होतो तसे अग्नीत अग्नी मिसळून आपल्या मूळ स्वरूपाला प्राप्त होतो, प्रकट होतो व आपल्या कारणाला प्राप्त होऊन स्थिर होतो. जे लोक व्याप्त असलेल्या विद्युतचे प्रकटीकरण जाणतात ते अमाप ऐश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ १४ ॥