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अद॑ब्धेभि॒स्तव॑ गो॒पाभि॑रिष्टे॒ऽस्माकं॑ पाहि त्रिषधस्थ सू॒रीन्। रक्षा॑ च नो द॒दुषां॒ शर्धो॑ अग्ने॒ वैश्वा॑नर॒ प्र च॑ तारीः॒ स्तवा॑नः ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adabdhebhis tava gopābhir iṣṭe smākam pāhi triṣadhastha sūrīn | rakṣā ca no daduṣāṁ śardho agne vaiśvānara pra ca tārīḥ stavānaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अद॑ब्धेभिः। तव॑। गो॒पाभिः॑। इ॒ष्टे॒। अ॒स्माक॑म्। पा॒हि॒। त्रि॒ऽस॒द॒स्थ॒। सू॒रीन्। रक्ष॑। च॒। नः॒। द॒दुषा॑म्। शर्धः॑। अ॒ग्ने॒। वैश्वा॑नर। प्र। च॒। ता॒रीः॒। स्तवा॑नः ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:8» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:10» मन्त्र:7 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा आदि जनों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (त्रिषधस्थ) तीन तुल्य स्थानों में वर्त्तमान (इष्टे) मेल करने योग्य (वैश्वानर) विद्या और विनय से प्रकाशमान (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान ! (स्तवानः) प्रशंसा करते हुए आप (अदब्धेभिः) अहिंसक जनों से (गोपाभिः) रक्षाओं के द्वारा (नः) हम लोगों के (सूरीन्) विद्वानों का (पाहि) पालन करिये और (अस्माकम्) हम लोगों के सम्बन्धियों की (च) भी (रक्षा) रक्षा करिये तथा (तव) आपका और (ददुषाम्) देनेवालों का (च) और हमारा (शर्धः) बल बढ़े और हम लोगों के साथ आप शत्रुओं का (प्र, तारीः) उल्लङ्घन करो ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे राजजन ! जैसे सूर्य्य ऊपर, नीचे और मध्यस्थ लोकों को प्रकाशित करता है, वैसे ही प्रजाजनों की आप सब प्रकार से रक्षा कीजिये और जैसे इस राज्य में विद्वान् बढ़ें, वैसे कार्य करिये ॥७॥ इस सूक्त में विद्या और विनय से प्रकाशमान, विद्वान्, सूर्य्य और राजा आदि के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह आठवाँ सूक्त और दसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजादिजनैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे त्रिषधस्थेष्टे वैश्वानराग्ने ! स्तवानस्त्वमदब्धेभिर्गोपाभिर्नोऽस्मान् सूरीन् पाहि। अस्माकं सम्बन्धिनश्च रक्षा यतस्तव ददुषामस्माकं च शर्धो वर्धेत। अस्माभिः सह त्वं शत्रून् प्र तारीरुल्लङ्घय ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अदब्धेभिः) अहिंसकैः (तव) (गोपाभिः) रक्षाभिः (इष्टे) सङ्गन्तव्ये (अस्माकम्) (पाहि) (त्रिषधस्थ) त्रिषु समानस्थानेषु वर्त्तमान (सूरीन्) विदुषः (रक्षा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (च) (नः) अस्मान् (ददुषाम्) दातॄणाम् (शर्धः) बलम् (अग्ने) (वैश्वानर) विद्याविनयप्रकाशमान (प्र) (च) (तारीः) तारय (स्तवानः) प्रशंसन् ॥७॥
भावार्थभाषाः - हे राजजन ! यथा सूर्य्य उपर्यधोमध्यस्थांल्लोकान् प्रकाशयति तथाविधं प्रजाजनांस्त्वं सर्वतो रक्ष। यथाऽत्र राज्ये विद्वांसो वर्धेरंस्तथा विधानं विधेहि ॥७॥ अत्र वैश्वानरविद्वत्सूर्य्यराजादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजजनांनो ! जसा सूर्य वर, खाली, मध्यभागी असणाऱ्या लोकांना प्रकाशित करतो तसे तुम्ही प्रजाजनांचे रक्षण करा व राज्यात विद्वान वाढतील असे कार्य करा. ॥ ७ ॥