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यु॒गेयु॑गे विद॒थ्यं॑ गृ॒णद्भ्योऽग्ने॑ र॒यिं य॒शसं॑ धेहि॒ नव्य॑सीम्। प॒व्येव॑ राजन्न॒घशं॑समजर नी॒चा नि वृ॑श्च व॒निनं॒ न तेज॑सा ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuge-yuge vidathyaṁ gṛṇadbhyo gne rayiṁ yaśasaṁ dhehi navyasīm | pavyeva rājann aghaśaṁsam ajara nīcā ni vṛśca vaninaṁ na tejasā ||

पद पाठ

यु॒गेऽयु॑गे। वि॒द॒थ्य॑म्। गृ॒णत्ऽभ्यः॑। अग्ने॑। र॒यिम्। य॒शस॑म्। धे॒हि॒। नव्य॑सीम्। प॒व्या॑ऽइव। रा॒ज॒न्। अ॒घऽशं॑सम्। अ॒ज॒र॒। नी॒चा। नि। वृ॒श्च॒। व॒निन॑म्। न। तेज॑सा ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:8» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:10» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अजर) वृद्धावस्थारूप दोष से रहित (राजन्) प्रकाशमान (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान ! आप (तेजसा) तेज से (वनिनम्) किरण विद्यमान जिसमें उसको (न) जैसे वैसे वा शूरवीर जन (पव्येव) वज्र से जैसे (नीचा) नीच को वैसे (अघशंसम्) चोर को (नि) अत्यन्त (वृश्च) काटो और (गृणद्भ्यः) स्तुति करनेवालों के लिये (युगेयुगे) वर्ष-वर्ष वा वर्षसमुदाय वर्षसमुदाय में (विदथ्यम्) संग्राम और विज्ञानादिकों में (रयिम्) धन (यशसम्) कीर्ति वा अन्न को और (नव्यसीम्) अतिशय नवीन विद्या वा क्रिया को (धेहि) धारण करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे सूर्य्य किरणों से संयुक्त मेघ का नाश करता है और जैसे वज्र विदारण करने योग्य पदार्थ को विदारण करता, वैसे राजा चोर आदि दुष्ट जनों का छेदन करके धार्मिक जनों के लिये धन आदि ऐश्वर्य्य को धारण करे ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्नृपः किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे अजर राजन्नग्ने ! त्वं तेजसा वनिनं न शूरःपव्येव नीचाऽघशंसं नि वृश्च गृणद्भ्यो युगेयुगे विदथ्यं रयिं यशसं नव्यसीं च धेहि ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युगेयुगे) वर्षे वर्षे वर्षसमुदाये वर्षसमुदाये वा (विदथ्यम्) विदथेषु सङ्ग्रामविज्ञानादिषु भवम् (गृणद्भ्यः) स्तुवद्भ्यः (अग्ने) (रयिम्) धनम् (यशसम्) कीर्तिमन्नं वा (धेहि) (नव्यसीम्) अतिशयेन नूतनां विद्यां क्रियां वा (पव्येव) वज्रेणेव (राजन्) (अघशंसम्) स्तेनम् (अजर) जरादोषरहित (नीचा) नीचम् (नि) नितराम् (वृश्च) छिन्धि (वनिनम्) वनानि किरणा विद्यन्ते यस्मिंस्तत् (न) इव (तेजसा) ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । यथा सूर्य्यो किरणसंयुक्तं मेघं छिनत्ति यथा वज्रो विदारणीयं विदृणाति तथा राजा स्तेनादीन् दुष्टान् छित्त्वा भित्त्वा धार्मिकेभ्यो धनाद्यैश्वर्य्यं दधातु ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सूर्य किरणांद्वारे मेघाचा नाश करतो, जसे वज्र विदारण करण्यायोग्य पदार्थांचे विदारण करते तसे राजाने चोर इत्यादी दुष्ट लोकांचा नाश करून धार्मिक लोकांसाठी धन इत्यादी ऐश्वर्य धारण करावे. ॥ ५ ॥