वांछित मन्त्र चुनें

व्य॑स्तभ्ना॒द् रोद॑सी मि॒त्रो अद्भु॑तोऽन्त॒र्वाव॑दकृणो॒ज्ज्योति॑षा॒ तमः॑। वि चर्म॑णीव धि॒षणे॑ अवर्तयद्वैश्वान॒रो विश्व॑मधत्त॒ वृष्ण्य॑म् ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vy astabhnād rodasī mitro adbhuto ntarvāvad akṛṇoj jyotiṣā tamaḥ | vi carmaṇīva dhiṣaṇe avartayad vaiśvānaro viśvam adhatta vṛṣṇyam ||

पद पाठ

वि। अ॒स्त॒भ्ना॒त्। रोद॑सी॒ इति॑। मि॒त्रः। अद्भु॑तः। अ॒न्तः॒ऽवाव॑त्। अ॒कृ॒णो॒त्। ज्योति॑षा। तमः॑। वि। चर्म॑णीइ॒वेति॒ चर्म॑णीऽइव। धि॒षणे॒ इति॑। अ॒व॒र्त॒य॒त्। वै॒श्वा॒न॒रः। विश्व॑म्। अ॒ध॒त्त॒। वृष्ण्य॑म् ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:8» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:3


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर सूर्य्य कैसा है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अद्भुतः) आश्चर्यजनक गुण, कर्म और स्वभाववाला (मित्रः) सब के मित्र के समान वर्त्तमान (वैश्वानरः) संपूर्ण मनुष्यों में विराजमान सूर्य्य (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (वि, अस्तभ्नात्) धारण करता तथा (ज्योतिषा) प्रकाश से (तमः) रात्रि को (अकृणोत्) करता (अन्तर्वावत्) अन्तः अर्थात् ब्रह्माण्ड के भीतर अत्यन्त चलता (चर्म्मणीव) जैसे चर्म में रोम धारण किये गये, वैसे (धिषणे) सब के धारण करनेवालियों को (वि, अवर्त्तयत्) विशेष करके वर्ताता (वृष्ण्यम्) वृषों में उत्पन्न वा श्रेष्ठ (विश्वम्) सम्पूर्ण जगत् को (अधत्त) धारण करता है, उसको तुम लोग प्रयोग करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं । हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर से बनाया गया यह सूर्य्य चर्म्म रोगों को, वैसे आकर्षण से लोकों को धारण करता है तथा नियम से चलाता और चलता है, वही जगत् के उपकार के लिये समर्थ होता है ॥३॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सूर्य्यः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! योऽद्भुतो मित्रो वैश्वानरः सूर्यो रोदसी व्यस्तभ्नाज्ज्योतिषा तमोऽकृणोदन्तर्वावच्चर्म्मणीव धिषणे व्यवर्त्तयद् वृष्ण्यं विश्वमधत्त तं यूयं सम्प्रयुङ्ध्वम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) (अस्तभ्नात्) स्तभ्नाति धरति (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (मित्रः) सर्वस्य सुहृदिव (अद्भुतः) आश्चर्य्यगुणकर्म्मस्वभावः (अन्तर्वावत्) यो अन्तर्भृशं वाति गच्छति (अकृणोत्) करोति (ज्योतिषा) प्रकाशेन (तमः) रात्रिम् (वि) (चर्म्मणीव) यथा चर्म्मणि लोमानि धृतानि (धिषणे) सर्वस्य धारिके (अवर्त्तयत्) वर्त्तयति (वैश्वानरः) विश्वेषु नरेषु विराजमानः (विश्वम्) सर्वं जगत् (अधत्त) धरति (वृष्ण्यम्) वृषसु भवं साधुं वा ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यो जगदीश्वरनिर्मितोऽयं सूर्यश्चर्मलोमानीवाऽऽकर्षणेन लोकान् धरति नियमेन चालयति स्वयं चलति स एव जगदुपकाराय प्रभवति ॥३॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. त्वचा जशी रोमांना आकर्षित करून धारण करते तसे जगदीश्वराकडून निर्माण झालेला सूर्य गोलांना आकर्षित करतो व धारण करतो. तसेच नियमाने चालतो, चालवितो. तो जगावर उपकार करण्यासाठी समर्थ असतो. ॥ ३ ॥