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स जाय॑मानः पर॒मे व्यो॑मनि व्र॒तान्य॒ग्निर्व्र॑त॒पा अ॑रक्षत। व्य१॒॑न्तरि॑क्षममिमीत सु॒क्रतु॑र्वैश्वान॒रो म॑हि॒ना नाक॑मस्पृशत् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa jāyamānaḥ parame vyomani vratāny agnir vratapā arakṣata | vy antarikṣam amimīta sukratur vaiśvānaro mahinā nākam aspṛśat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। जाय॑मानः। प॒र॒मे। विऽओ॑मनि। व्र॒तानि॑। अ॒ग्निः। व्र॒त॒ऽपाः। अ॒र॒क्ष॒त॒। वि। अ॒न्तरि॑क्षम्। अ॒मि॒मी॒त॒। सु॒ऽक्रतुः॑। वै॒श्वा॒न॒रः। म॒हि॒ना। नाक॑म्। अ॒स्पृ॒श॒त् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:8» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:10» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् जनो ! आप लोगों को जो (व्रतपाः) कर्म्मों की रक्षा करनेवाला (अग्निः) अग्नि (परमे) श्रेष्ठ और (व्योमनि) आकाश के सदृश व्यापक परमेश्वर में (जायमानः) उत्पन्न होता हुआ (व्रतानि) सत्यभाषण आदि कर्म्मों की (अरक्षत) रक्षा करता तथा (अन्तरिक्षम्) जल की (वि) विशेष करके (अमिमीत) रक्षा करता और (सुक्रतुः) अच्छे कर्म्मोंवाला (वैश्वानरः) सम्पूर्ण मनुष्यों में प्रकाशमान होता हुआ (महिना) महत्त्व से (नाकम्) दुःखरहित का (अस्पृशत्) स्पर्श करता है (सः) वह जानने योग्य है ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस परमेश्वर ने अपने में सूर्य्य आदि लोकों के निर्म्माण से सब का उपकार किया, उसके सत्य कर्म्मों का अनुष्ठान करके उपासना करो अर्थात् उसी का भजन करो ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! युष्माभिर्यो व्रतपा अग्निः परमे व्योमनि जायमानो व्रतान्यरक्षतान्तरिक्षं व्यमिमीत सुक्रतुर्वैश्वानरो महिना नाकमस्पृशत् स वेदितव्यः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) सूर्य्यरूपेण (जायमानः) उत्पद्यमानः (परमे) प्रकृष्टे (व्योमनि) व्योमवद्व्यापके (व्रतानि) सत्यभाषणादीनि कर्म्माणि (अग्निः) पावकः (व्रतपाः) यो व्रतानि कर्म्माणि रक्षति सः (अरक्षत) रक्षति (वि) (अन्तरिक्षम्) उदकम् (अमिमीत) रचयति (सुक्रतुः) शोभनकर्म्मा (वैश्वानरः) विश्वेषु नरेषु प्रकाशमानः (महिना) महत्त्वेन (नाकम्) अविद्यमानदुःखम् (अस्पृशत्) स्पृशति ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! येन परमेश्वरेण स्वस्मिन् सूर्य्यादिलोकनिर्म्माणेन सर्वेषामुपकारः कृतस्तस्य सत्यानि कर्म्माण्यनुष्ठायोपासनां कुर्वन्तु ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! ज्या परमेश्वराने स्वतःमध्ये सूर्य इत्यादी गोलांना निर्माण करून सर्वांवर उपकार केलेला आहे, त्याच्या सत्यकर्माचे अनुष्ठान करून उपासना करा. ॥ २ ॥