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पृ॒क्षस्य॒ वृष्णो॑ अरु॒षस्य॒ नू सहः॒ प्र नु वो॑चं वि॒दथा॑ जा॒तवे॑दसः। वै॒श्वा॒न॒राय॑ म॒तिर्नव्य॑सी॒ शुचिः॒ सोम॑इव पवते॒ चारु॑र॒ग्नये॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pṛkṣasya vṛṣṇo aruṣasya nū sahaḥ pra nu vocaṁ vidathā jātavedasaḥ | vaiśvānarāya matir navyasī śuciḥ soma iva pavate cārur agnaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पृ॒क्षस्य॑। वृष्णः॑। अ॒रु॒षस्य॑। नु। सहः॑। प्र। नु। वो॒च॒म्। वि॒दथा॑। जा॒तऽवे॑दसः। वै॒श्वा॒न॒राय॑। म॒तिः। नव्य॑सी। शुचिः॑। सोमः॑ऽइव। प॒व॒ते॒। चारुः॑। अ॒ग्नये॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:8» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:10» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सात ऋचावाले आठवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अब मनुष्यों को क्या जान कर क्या उपदेश करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस (पृक्षस्य) सर्वत्र सम्बद्ध अर्थात् संयुक्त (अरुषस्य) नहीं हिंसा करने और (वृष्णः) सेचन करनेवाले (जातवेदसः) उत्पन्न हुओं में विद्यमान के (सहः) बलका (नु) शीघ्र (प्र, वोचम्) उपदेश देऊँ और (विदथा) विज्ञानों का (नू) शीघ्र उपदेश देऊँ और जिसकी (सोमइव) सोमलता जैसे वैसे (नव्यसी) अत्यन्त नवीन (शुचिः) पवित्र (चारुः) सुन्दर (मतिः) बुद्धि (पवते) पवित्र होती है उस (वैश्वानराय) सम्पूर्ण विश्व के प्रकाशक (अग्नये) विद्वान् जन के लिये बुद्धि को धारण करूँ ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिन मनुष्यों की सोमलतारूप ओषधि के सदृश पवित्र करनेवाली बुद्धि, अतुल बल और अग्निविद्या होती है, वे ही आनन्दित होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किं विज्ञाय किमुपदेष्टव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यस्य पृक्षस्यारुषस्य वृष्णो जातवेदसः सहो नू प्र वोचं विदथा नु प्रवोचं यस्य सोमइव नव्यसी शुचिश्चारुर्मतिः पवते तस्मै वैश्वानरायाऽग्नये प्रज्ञां धरेयम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पृक्षस्य) सर्वत्र सम्बद्धस्य सम्पृक्तस्य (वृष्णः) सेचकस्य (अरुषस्य) अहिंसकस्य (नूः) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (सहः) बलम् (प्र) (नु) क्षिप्रम् (वोचम्) उपदिशेयम् (विदथा) विज्ञानानि (जातवेदसः) जातेषु विद्यमानस्य (वैश्वानराय) सर्वस्य विश्वस्य प्रकाशकाय (मतिः) प्रज्ञा (नव्यसी) अतिशयेन नवीना (शुचिः) पवित्रा (सोमइव) सोमलतेव (पवते) पवित्रा भवति (चारुः) सुन्दरा (अग्नये) विदुषे ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । येषां मनुष्याणां सोमौषधिवत्पवित्रकरी प्रज्ञाऽतुलं बलमग्निविद्या च भवति त एवाऽऽनन्दन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्या व विनयाने प्रकाशित विद्वान, सूर्य व राजा इत्यादींच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या माणसांजवळ सोमलतारूपी औषधीप्रमाणे पवित्र करणारी बुद्धी, अत्यंत बल व अग्निविद्या असते, ती आनंदी असतात. ॥ १ ॥