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ति॒ग्मायु॑धौ ति॒ग्महे॑ती सु॒शेवौ॒ सोमा॑रुद्रावि॒ह सु मृ॑ळतं नः। प्र नो॑ मुञ्चतं॒ वरु॑णस्य॒ पाशा॑द्गोपा॒यतं॑ नः सुमन॒स्यमा॑ना ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tigmāyudhau tigmahetī suśevau somārudrāv iha su mṛḻataṁ naḥ | pra no muñcataṁ varuṇasya pāśād gopāyataṁ naḥ sumanasyamānā ||

पद पाठ

ति॒ग्मऽआ॑युधौ। ति॒ग्महे॑ती॒ इति॑ ति॒ग्मऽहे॑ती। सु॒ऽशेवौ॑। सोमा॑रुद्रा। इ॒ह। सु। मृ॒ळ॒त॒म्। नः॒। प्र। नः॒। मु॒ञ्च॒त॒म्। वरु॑णस्य। पाशा॑त्। गो॒पा॒यत॑म्। नः॒। सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑ना ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:74» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:18» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोमारुद्रौ) शुद्ध औषधी और प्राणों के समान वर्त्तमान (तिग्मायुधौ) तेज आयुधों तथा (तिग्महेती) पैने वज्रवालो (सुशेवौ) अच्छे सुखयुक्त वैद्य और राजजनो ! तुम (इह) इस संसार में (नः) हम लोगों को (सु, मृळतम्) अच्छे प्रकार सुखी करो तथा (नः) हम लोगों को (वरुणस्य) उदान के समान बलवान् रोग के (पाशात्) बन्धन से (प्र, मुञ्चतम्) छुड़ाओ और (सुमनस्यमाना) सुन्दर विचारवान् होते हुए (नः) हम लोगों की निरन्तर (गोपायतम्) रक्षा करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे महौषाधि और बहिः प्राण वायु सबकी सदा पालना करते हैं, वैसे उत्तम राजा और वैद्यजन समस्त उपद्रव और रोगों से निरन्तर रक्षा करते हैं ॥४॥ इस सूक्त में ओषधि और प्राण के समान वैद्य और राजा के कामों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चौहत्तरवाँ सूक्त और अठारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ किं कुर्य्यातामित्याह ॥

अन्वय:

हे सोमारुद्राविव वर्त्तमानौ तिग्मायुधौ तिग्महेती सुशेवौ वैद्यराजानौ ! युवामिह नः सु मृळतं नोऽस्मान् वरुणस्य पाशात्प्र मुञ्चतं सुमनस्यमाना सन्तौ नः सततं गोपायतम् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तिग्मायुधौ) तिग्मानि तेजस्वीन्यायुधानि ययोस्तौ (तिग्महेती) तिग्मस्तीव्रो हेतिर्वज्रो ययोस्तौ (सुशेवौ) सुसुखौ (सोमारुद्रौ) शुद्धावोषधीप्राणाविव (इह) अस्मिन् संसारे (सु) सुष्ठु (मृळतम्) सुखयतम् (नः) अस्मान् (प्र) (नः) अस्मान् (मुञ्चतम्) (वरुणस्य) उदानस्येव बलवतो रोगस्य (पाशात्) बन्धनात् (गोपायतम्) (नः) अस्मान् (सुमनस्यमाना) सुष्ठु विचारयन्तौ ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा महौषधिबहिःप्राणौ सर्वान् सदा पालयतस्तथोत्तमौ राजवैद्यौ सर्वेभ्य उपद्रवरोगेभ्यो निरन्तरं रक्षत इति ॥४॥ अत्रौषधिप्राणवद्वैद्यराजयोः कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुःसप्ततितमं सूक्तमष्टादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे महौषधी व बहिः प्राणवायू सर्वांचे पालन करतात तसे उत्तम राजा व वैद्य संपूर्ण उपद्रव व रोगांपासून सदैव रक्षण करतात. ॥ ४ ॥