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सोमा॑रुद्रा॒ वि वृ॑हतं॒ विषू॑ची॒ममी॑वा॒ या नो॒ गय॑मावि॒वेश॑। आ॒रे बा॑धेथां॒ निर्ऋ॑तिं परा॒चैर॒स्मे भ॒द्रा सौ॑श्रव॒सानि॑ सन्तु ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

somārudrā vi vṛhataṁ viṣūcīm amīvā yā no gayam āviveśa | āre bādhethāṁ nirṛtim parācair asme bhadrā sauśravasāni santu ||

पद पाठ

सोमा॑रुद्रा। वि। वृ॒ह॒त॒म्। विषू॑चीम्। अमी॑वा। या। नः॒। गय॑म्। आ॒ऽवि॒वेश॑। आ॒रे। बा॒धे॒था॒म्। निःऽऋ॑तिम्। प॒रा॒चैः। अ॒स्मे इति॑। भ॒द्रा। सौ॒श्र॒व॒सानि॑। स॒न्तु॒ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:74» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:18» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे किसको निवारिके क्या उत्पन्न करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सोमरुद्रा) ओषधी और प्राणों के समान सुख उत्पन्न करनेवाला राजा और वैद्य जनो ! तुम (या) जो (अमीवा) रोग (नः) हमारे (गयम्) घर वा सन्तान को (आविवेश) प्रवेश करता है उस (विषूचीम्) विषूच्यादि को (वि, वृहतम्) छिन्न-भिन्न करो तथा (पराचैः) पराजित हुए दुष्टों की (निर्ऋतिम्) दुःख देनेवाली कुनीति को (आरे) दूर (बाधेथाम्) हटाओ, जिस कारण (अस्मे) हम लोगों में (भद्रा) सेवन करने योग्य (सौश्रवसानि) उत्तम अन्नादि पदार्थों में सिद्ध अन्न (सन्तु) हों ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा और वैद्यवर रोगों को शरीर के प्रवेश से पहिले ही दूर करते हैं तथा कुनीति और कुपथ्य को भी पहिले दूर करते हैं, उनके पुरुषार्थ से सब मनुष्य बहुत धन-धान्य और आरोग्यपनों को प्राप्त होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ किं निवार्य्य किं जनयेतामित्याह ॥

अन्वय:

हे सोमारुद्रेव राजवैद्यौ ! युवां या अमीवा नो गयमाविवेश तां विषूचीं वि वृहतं पराचैर्निर्ऋतिमारे बाधेथां यतोऽस्मे भद्रा सौश्रवसानि सन्तु ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सोमारुद्रा) ओषधीप्राणवत्सुखसम्पादकौ (वि) (वृहतम्) छेदयतम् (विषूचीम्) विषूच्यादिरोगम् (अमीवा) रोगः (या) (नः) अस्माकम् (गयम्) गृहमपत्यं वा (आविवेश) आविशति (आरे) दूरे (बाधेथाम्) (निर्ऋतिम्) दुःखप्रदां कुनीतिम् (पराचैः) पराङ्मुखैः (अस्मे) अस्मासु (भद्रा) भजनीयानि (सौश्रवसानि) सुश्रवस्सु भवान्यन्नादीनि (सन्तु) ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो राजा वैद्यवरश्च रोगाच्छरीरप्रवेशात् प्रागेव दूरीकुरुतः कुनीतिं कुपथ्यं च पुरस्तादेव दूरीकुरुतस्तयोः पुरुषार्थेन सर्वे मनुष्या धनधान्याऽऽरोग्यादीनि पुष्कलानि प्राप्नुवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो राजा व वैद्य शरीरात रोग प्रवेश करण्यापूर्वीच दूर करतात त्यांच्या पुरुषार्थाने सर्व माणसे पुष्कळ धन, धान्य व आरोग्य प्राप्त करतात. ॥ २ ॥