सोमा॑रुद्रा॒ वि वृ॑हतं॒ विषू॑ची॒ममी॑वा॒ या नो॒ गय॑मावि॒वेश॑। आ॒रे बा॑धेथां॒ निर्ऋ॑तिं परा॒चैर॒स्मे भ॒द्रा सौ॑श्रव॒सानि॑ सन्तु ॥२॥
somārudrā vi vṛhataṁ viṣūcīm amīvā yā no gayam āviveśa | āre bādhethāṁ nirṛtim parācair asme bhadrā sauśravasāni santu ||
सोमा॑रुद्रा। वि। वृ॒ह॒त॒म्। विषू॑चीम्। अमी॑वा। या। नः॒। गय॑म्। आ॒ऽवि॒वेश॑। आ॒रे। बा॒धे॒था॒म्। निःऽऋ॑तिम्। प॒रा॒चैः। अ॒स्मे इति॑। भ॒द्रा। सौ॒श्र॒व॒सानि॑। स॒न्तु॒ ॥२॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे किसको निवारिके क्या उत्पन्न करें, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तौ किं निवार्य्य किं जनयेतामित्याह ॥
हे सोमारुद्रेव राजवैद्यौ ! युवां या अमीवा नो गयमाविवेश तां विषूचीं वि वृहतं पराचैर्निर्ऋतिमारे बाधेथां यतोऽस्मे भद्रा सौश्रवसानि सन्तु ॥२॥