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जना॑य चि॒द्य ईव॑त उ लो॒कं बृह॒स्पति॑र्दे॒वहू॑तौ च॒कार॑। घ्नन्वृ॒त्राणि॒ वि पुरो॑ दर्दरीति॒ जय॒ञ्छत्रूँ॑र॒मित्रा॑न्पृ॒त्सु साह॑न् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

janāya cid ya īvata u lokam bṛhaspatir devahūtau cakāra | ghnan vṛtrāṇi vi puro dardarīti jayañ chatrūm̐r amitrān pṛtsu sāhan ||

पद पाठ

जना॑य। चि॒त्। यः। ईव॑ते। ऊँ॒ इति॑। लो॒कम्। बृह॒स्पतिः॑। दे॒वऽहू॑तौ। च॒कार॑। घ्नन्। वृ॒त्राणि॑। वि। पुरः॑। द॒र्द॒री॒ति॒। जय॑न्। शत्रू॑न्। अ॒मित्रा॑न्। पृ॒त्ऽसु। साह॑न् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:73» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उस राजा को कैसे सेना के अधिकारी करने चाहियें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (देवहूतौ) विद्वानों के बुलाने में (बृहस्पतिः) बड़ों की पालना करनेवाले सूर्यलोक के समान (ईवते) समीप आनेवाले (जनाय) मनुष्य के लिये (लोकम्) देखने योग्य सुख वा स्थान को प्रकाशित (चकार) करता है तथा (पृत्सु) सङ्ग्रामों में (साहन्) सहन करता हुआ (अमित्रान्) विरोधी उदासीन जनों को (जयन्) जीतता और (शत्रून्) शत्रुओं को (घ्नन्) मारता हुआ (वृत्राणि) धनों को प्राप्त होता हुआ (पुरः) शत्रुओं के नगरों को (वि, दर्दरीति) निरन्तर विदीर्ण करता है वह (उ, चित्) ही सेनापति होने योग्य है ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जो न्याय से प्रजा पालने के लिये प्रसन्न, पूर्णशरीरात्मबलयुक्त वीर, विद्वान् होवें, वे सेनापति हों जिससे शत्रुओं के जीतने और उनकी सेना के सहने और उसे छिन्न-भिन्न करने तथा विजय और धन को पाने को समर्थ हों ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तेन राज्ञा कीदृशाः सेनाधिकारिणः कार्या इत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो देवहूतौ बृहस्पतिरिव ईवते जनाय लोकं प्रकाशितं चकार पृत्सु साहन्नमित्राञ्जयञ्छत्रून् घ्नन् वृत्राणि प्राप्नुवन् पुरो वि दर्दरीति स उ चित्सेनापतिर्भवितुमर्हति ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (जनाय) (चित्) अपि (यः) (ईवते) उपगताय (उ) (लोकम्) द्रष्टव्यसुखं स्थानं वा (बृहस्पतिः) बृहतां पालकः सूर्यलोक इव (देवहूतौ) देवानामाह्वाने (चकार) करोति (घ्नन्) नाशयन् (वृत्राणि) धनानि (वि) विशेषेण (पुरः) शत्रूणां नगराणि (दर्दरीति) भृशं विदृणाति (जयन्) उत्कर्षं प्राप्तुमिच्छन् (शत्रून्) (अमित्रान्) विरोधिन उदासीनान् (पृत्सु) सङ्ग्रामे (साहन्) ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! ये न्यायेन प्रजापालनाय प्रसन्नाः पूर्णशरीरात्मबलयुक्ता वीरा विद्वांसः स्युस्ते सेनापतयो भवन्तु यतः शत्रूञ्जेतुं तत्सेनां सोढुं विदर्त्तुं विजयं धनं च प्राप्तुं शक्नुयुः ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जे न्यायाने प्रजेचे पालन करून प्रसन्न राहणारे, पूर्ण शरीर आत्मबल असणारे वीर विद्वान असतील त्यांनाच सेनापती बनवावे. ज्यामुळे शत्रूंना जिंकण्यास व त्यांच्या सेनेशी संघर्ष करण्यास व नष्टभ्रष्ट करण्यास तसेच विजय व धन प्राप्त करण्यास समर्थ असतील. ॥ २ ॥