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उदु॒ ष्य दे॒वः स॑वि॒ता हि॑र॒ण्यया॑ बा॒हू अ॑यंस्त॒ सव॑नाय सु॒क्रतुः॑। घृ॒तेन॑ पा॒णी अ॒भि प्रु॑ष्णुते म॒खो युवा॑ सु॒दक्षो॒ रज॑सो॒ विध॑र्मणि ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud u ṣya devaḥ savitā hiraṇyayā bāhū ayaṁsta savanāya sukratuḥ | ghṛtena pāṇī abhi pruṣṇute makho yuvā sudakṣo rajaso vidharmaṇi ||

पद पाठ

उत्। ऊँ॒ इति॑। स्यः। दे॒वः। स॒वि॒ता। हि॒र॒ण्यया॑। बा॒हू इति॑। अ॒यं॒स्त॒। सव॑नाय। सु॒ऽक्रतुः॑। घृ॒तेन॑। पा॒णी इति॑। अ॒भि। प्रु॒ष्णु॒ते॒। म॒खः। युवा॑। सु॒ऽदक्षः॑। रज॑सः। विऽध॑र्मणि ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:71» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:15» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब छः ऋचावाले एकसत्तरवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर राजा कैसा हो, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (मखः) यज्ञ के समान सुख करनेवाला (विधर्मणि) विशेष धर्म में (सुदक्षः) सुन्दर बल जिसका वह (युवा) जवान (सुक्रतुः) उत्तम बुद्धियुक्त (सविता) ऐश्वर्य्यवान् (देवः) विद्वान् (सवनाय) ऐश्वर्य के लिये (घृतेन) जल वा घी से युक्त (पाणी) प्रशंसा करने योग्य (हिरण्यया) सुवर्ण आदि आभूषण युक्त (बाहू) भुजाओं को (उत्, अयंस्त) उठाता है (स्यः, उ) वही (रजसः) लोक के विरोधियों को (अभि, प्रुष्णुते) सब ओर से भस्म करता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् अति बल से युक्त भुजाओंवाला, अत्यन्त बुद्धिमान्, विशेषता से धर्मात्मा होकर ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये निरन्तर उद्यम करता है, वह ऐश्वर्य को प्राप्त होकर फिर से सब प्रजा के धर्म में प्रवेश कर जैसे यज्ञ सुख देता है, वैसे सुखी करता है ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥

अन्वय:

यो मख इव सुखकरो विधर्मणि सुदक्षो युवा सुक्रतुः सविता देवः सवनाय घृतेन युक्तौ पाणी हिरण्यया बाहू उदयंस्त स्य उ रजसो विरोधिनोऽभि प्रुष्णुते ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) (उ) (स्यः) सः (देवः) (सविता) ऐश्वर्य्यवान् सत्कर्मसु प्रेरको राजा (हिरण्यया) हिरण्याद्याभूषणयुक्तौ (बाहू) भुजौ (अयंस्त) यच्छति (सवनाय) ऐश्वर्य्याय (सुक्रतुः) उत्तमप्रज्ञः (घृतेन) उदकेनाज्येन वा (पाणी) प्रशंसनीयौ (अभि) (प्रुष्णुते) अभिदहति (मखः) यज्ञ इव सुखकर्त्ता (युवा) प्राप्तयौवनः (सुदक्षः) शोभनं दक्षं बलं यस्य सः (रजसः) लोकस्य (विधर्मणि) विशिष्टे धर्मे ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो विद्वानतिबलयुक्तभुजो महाप्रज्ञो विशेषेण धार्मिकः सन्नैश्वर्यप्राप्तये सततमुद्यमं करोति स ऐश्वर्यं प्राप्य पुनः सर्वस्याः प्रजाया धर्मे निवेशनं कृत्वा यज्ञ इव सर्वदा सुखयेत् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सविता, राजा, प्रजा यांच्या कर्मांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो (राजा) विद्वान अति बलवान भुजा असलेला, अत्यंत बुद्धिमान, विशेषकरून धर्मात्मा बनून ऐश्वर्याच्या प्राप्तीसाठी सदैव उद्योग करतो तो ऐश्वर्य प्राप्त करून सर्व प्रजाधर्माचे पालन करतो व जसा यज्ञ सुख देतो तसा सुखी करतो. ॥ १ ॥