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ऊर्जं॑ नो॒ द्यौश्च॑ पृथि॒वी च॑ पिन्वतां पि॒ता मा॒ता वि॑श्व॒विदा॑ सु॒दंस॑सा। सं॒र॒रा॒णे रोद॑सी वि॒श्वशं॑भुवा स॒निं वाजं॑ र॒यिम॒स्मे समि॑न्वताम् ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ūrjaṁ no dyauś ca pṛthivī ca pinvatām pitā mātā viśvavidā sudaṁsasā | saṁrarāṇe rodasī viśvaśambhuvā saniṁ vājaṁ rayim asme sam invatām ||

पद पाठ

ऊर्ज॑म्। नः॒। द्यौः। च॒। पृ॒थि॒वी। च॒। पि॒न्व॒ता॒म्। पि॒ता। मा॒ता। वि॒श्व॒ऽविदा॑। सु॒ऽदंस॑सा। सं॒र॒रा॒णे इति॑ स॒म्ऽर॒रा॒णे। रोद॑सी॒ इति॑। वि॒श्वऽश॑म्भुवा। स॒निम्। वाज॑म्। र॒यिम्। अ॒स्मे इति॑। सम्। इ॒न्व॒ता॒म् ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:70» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:6 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे किसके तुल्य और क्या करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (विश्वविदा) जिनसे सर्व सुख को प्राप्त होते हैं (सुदंससा) जिनसे सुन्दर काम सिद्ध होते हैं (संरराणे) जो अच्छे प्रकार सुख देते हैं और (विश्वशंभुवा) जो सब के लिये सुख की भावना कराते वे (रोदसी) बहुपदार्थयुक्त द्यावापृथिवी (अस्मे) हम लोगों में (सनिम्) अच्छे प्रकार विभाग को और (वाजम्) विज्ञान वा अन्न तथा (रयिम्) धन को (सम्, इन्वताम्) उत्तमता से व्याप्त हों तथा (पिता) पिता के समान (द्यौः) सूर्य्य वा विद्युत् अग्नि (च) और (माता) माता के समान (पृथिवी) भूमि (च) भी (नः) हमारे लिये (ऊर्जम्) अन्न वा पराक्रम को (पिन्वताम्) सुखपूर्वक परिपूर्ण करें, उनको यथावत् जानो ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! आप, जो सूर्य पिता के समान, जो पृथिवी माता के समान ये दोनों सर्व सुख देने वा धन और ऐश्वर्य्य की प्राप्ति कराने वा मङ्गल करानेवाले उत्तम क्रियायुक्त और बल वा पराक्रम देनेवाले वर्त्तमान हैं, उनको उत्तम यत्न के साथ कैसे न जानो ॥६॥ इस सूक्त में द्यावापृथिवी और उनके समान अध्यापक और उपदेश वा ऋत्विक्, और यजमानों के काम का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सत्तरवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृश्यौ किंवत् किं कुरुत इत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! ये विश्वविदा सुदंससा संरराणे विश्वशंभुवा रोदसी अस्मे सनिं वाजं रयिं च समिन्वतां पितेव द्यौश्च मातेव पृथिवी च न ऊर्जं पिन्वतां ते यथावद्विजानन्तु ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऊर्जम्) अन्नं पराक्रमं वा। ऊर्गित्यन्ननाम। (निघं०२.७)। (नः) अस्मभ्यम् (द्यौः) सूर्यो विद्युद्वा (च) (पृथिवी) भूमिः (च) (पिन्वताम्) सुखयेताम् (पिता) पितेव (माता) मातेव (विश्वविदा) विश्वं सर्वं विन्दति याभ्यां ते (सुदंससा) शोभनानि दंसांसि कर्माणि ययोस्ते (संरराणे) ये सम्यक्सुखं रातो दत्तस्ते (रोदसी) बहुपदार्थयुक्ते द्यावापृथिव्यौ (विश्वशंभुवा) विश्वस्मै शं सुखं भावुके (सनिम्) संविभागम् (वाजम्) विज्ञानमन्नं वा (रयिम्) श्रियम् (अस्मे) अस्मासु (सम्) सम्यक् (इन्वताम्) व्याप्नुताम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! भवन्तो यः सूर्य्यः पितेव या पृथिवी मातेवैते सर्वसुखप्रदे धनैश्वर्यप्रापिके मङ्गलनिमित्ते उत्तमक्रिये बलपराक्रमप्रदे वर्तेते ते प्रयत्नेन कथं न विजानन्तीति ॥६॥ अत्र द्यावापृथिव्योस्तद्वदध्यापकोपदेशकयोर्ऋत्विग्यजमानयोश्च कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्ततितमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमांलकार आहे. हे माणसांनो ! सूर्य पित्याप्रमाणे, पृथ्वी मातेप्रमाणे दोघेही सुख देणारे. धन ऐश्वर्याचे प्रापक, मंगलदायक, उत्तम क्रियाकारक, बल व पराक्रमयुक्त असतात. त्यांना तुम्ही प्रयत्नपूर्वक का जाणणार नाही? ॥ ६ ॥