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मधु॑ नो॒ द्यावा॑पृथि॒वी मि॑मिक्षतां मधु॒श्चुता॑ मधु॒दुघे॒ मधु॑व्रते। दधा॑ने य॒ज्ञं द्रवि॑णं च दे॒वता॒ महि॒ श्रवो॒ वाज॑म॒स्मे सु॒वीर्य॑म् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

madhu no dyāvāpṛthivī mimikṣatām madhuścutā madhudughe madhuvrate | dadhāne yajñaṁ draviṇaṁ ca devatā mahi śravo vājam asme suvīryam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मधु॑। नः॒। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। मि॒मि॒क्ष॒ता॒म्। म॒धु॒ऽश्चुता॑। म॒धु॒दुघे॒ इति॑ म॒धु॒ऽदुघे॑। मधु॑व्रते॒ इति॒ मधु॑ऽव्रते। दधा॑ने॒ इति॑। य॒ज्ञम्। द्रवि॑णम्। च॒। दे॒वता॑। महि॑। श्रवः॑। वाज॑म्। अ॒स्मे इति॑। सु॒ऽवीर्य॑म् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:70» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उनसे क्या करने योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापक और उपदेशको ! जो (मधुश्चुता) मधुर जल के वर्षाने और (मधुदुघे) मधुर जल से काम पूरे करने (मधुव्रते) जिनके मधुर काम (देवता) जो दिव्यरूप (अस्मे) हम लोगों में (यज्ञम्) सङ्गतिमय व्यवहार (द्रविणम्) धन (महि) महान् (श्रवः) अन्न (वाजम्) विज्ञान (सुवीर्यम्, च) और उत्तम पराक्रम को भी (दधाने) स्थापन करते हुए (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि यह दोनों पदार्थों वर्त्तमान हैं, उनसे तुम (नः) हमारे लिये (मधु) मधुर जल के (मिमिक्षतम्) सींचने की इच्छा करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे भूमि और सूर्य्य सत्य कर्मयुक्त, इच्छा पूरी करने और मधुरादि रस देने, धन, अन्न, बल और विज्ञान के बढ़ानेवाले हों, वैसे अनुष्ठान करो ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ताभ्यां किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे अध्यापकोपदेशकौ ! ये मधुश्चुता मधुदुघे मधुव्रते देवताऽस्मे यज्ञं द्रविणं महि श्रवो वाजं सुवीर्यं च दधाने द्यावापृथिवी वर्त्तेते ताभ्यां युवां नो मधु मिमिक्षताम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मधु) मधुरमुदकम्। मध्वित्युदकनाम। (निघं०१.१२)। (नः) अस्मभ्यम् (द्यावापृथिवी) सूर्य्यभूमी (मिमिक्षताम्) मेढुमिच्छतम् (मधुश्चुता) मधूदकस्य वर्षयित्र्यौ (मधुदुघे) ये मधुनोदकेन दुग्धः कामान् प्रपूरयतस्ते (मधुव्रते) मधूनि व्रतानि कर्माणि ययोस्ते (दधाने) (यज्ञम्) सङ्गतिमयं व्यवहारम् (द्रविणम्) धनम् (च) (देवता) दिव्यस्वरूपे (महि) महत् (श्रवः) अन्नम् (वाजम्) विज्ञानम् (अस्मे) अस्मासु (सुवीर्यम्) उत्तमपराक्रमम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथा भूमिसूर्य्यौ सत्यकर्माणाविच्छापूरकौ मधुरादिरसप्रदौ धनान्नबलविज्ञानवर्धकौ स्यातां तथाऽनुतिष्ठन्तु ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जशी भूमी व सूर्य सत्यकर्मी, इच्छापूर्ती करणारे, मधुर रस इत्यादी देणारे, धन, अन्न, बल व विज्ञान वृद्धी करणारे असतात तसे तुम्हीही अनुष्ठान करा. ॥ ५ ॥