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उ॒भा जि॑ग्यथु॒र्न परा॑ जयेथे॒ न परा॑ जिग्ये कत॒रश्च॒नैनोः॑। इन्द्र॑श्च विष्णो॒ यदप॑स्पृधेथां त्रे॒धा स॒हस्रं॒ वि तदै॑रयेथाम् ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ubhā jigyathur na parā jayethe na parā jigye kataraś canainoḥ | indraś ca viṣṇo yad apaspṛdhethāṁ tredhā sahasraṁ vi tad airayethām ||

पद पाठ

उ॒भा। जि॒ग्य॒थुः॒। न। परा॑। ज॒ये॒थे॒ इति॑। न। परा॑। जि॒ग्ये॒। क॒त॒रः। च॒न। ए॒नोः॒। इन्द्रः॑। च॒। वि॒ष्णो॒ इति॑। यत्। अप॑स्पृधेथाम्। त्रे॒धा। स॒हस्र॑म्। वि। तत्। ऐ॒र॒ये॒था॒म् ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:69» मन्त्र:8 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:8 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विष्णो) बिजुली के समान व्याप्त होनेवाले (इन्द्रः, च) और परमैश्वर्य्यवान् वायु के समान वर्त्तमान ! तुम दोनों (यत्) जो (सहस्रम्) असंख्य सेना समूह हैं (तत्) उसे (त्रेधा) तीन प्रकार (अपस्पृधेथाम्) स्पर्द्धा अर्थात् तर्क-वितर्क से स्थापित करो और उसे (वि, ऐरयेथाम्) विविध प्रकार से यथा स्थान स्थित कराओ ऐसा करो तो (उभा) तुम दोनों (जिग्यथुः) विजय को प्राप्त होते हो (नः) नहीं (परा, जयेथे) पराजय को प्राप्त होते हो तथा (एनोः) इनके बीच (कतरः) कोई एक (चन) भी (न) नहीं (परा, जिग्ये) पराजित होता है ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे सेनाबल के अधीशो ! यदि आप लोग सर्वदा सेना की उन्नति के लिये और युद्धविद्या की वृद्धि के लिये प्रयत्न कीजिये तो सर्वत्र जीतिये कहीं भी न पराजित हूजिये ॥८॥ इस सूक्त में इन्द्र और विष्णु के समान सभा और सेनेश आदि के कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह उनहत्तरवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्याह ॥

अन्वय:

हे विष्णो इन्द्रश्च ! युवां यत्सहस्रं तत्त्रेधापस्पृधेथां व्यैरयेथां तदोभा युवां जिग्यथुर्न परा जयेथे एनोः कतरश्चन न परा जिग्ये ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उभा) सभासेनेशौ (जिग्यथुः) विजयेथे (न) निषेधे (परा) (जयेथे) पराजयं प्राप्नुथः (न) (परा) (जिग्ये) पराजितो भवति (कतरः) अनयोर्मध्ये एकः (चन) अपि (एनोः) अनयोर्मध्ये (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् वायुवद्वर्त्तमानः (च) (विष्णो) विद्युद्वद्व्यापनशील (यत्) (अपस्पृधेथाम्) स्पर्द्धेथाम् (त्रेधा) त्रिविधम् (सहस्रम्) असङ्ख्यं सैन्यम् (वि) (तत्) (ऐरयेथाम्) प्रेरयेतम् ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे सेनाबलाध्यक्षा ! यदि भवन्तः सर्वदा सेनोन्नतये युद्धविद्यावृद्धये प्रयतेरँस्तर्हि सर्वत्र विजयेरन् कुत्राऽपि न पराजयेरन्नति ॥८॥ अत्रेन्द्रविष्णुवत्सभासेनेशादिकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनसप्ततितमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे सेनाध्यक्षा ! जर तू सेनेच्या उन्नतीसाठी व युद्धविद्येच्या वृद्धीसाठी प्रयत्न केलास तर सर्वत्र विजय मिळेल व कुठेही पराजित होणार नाहीस. ॥ ८ ॥