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इन्द्रा॑विष्णू॒ तत्प॑न॒याय्यं॑ वां॒ सोम॑स्य॒ मद॑ उ॒रु च॑क्रमाथे। अकृ॑णुतम॒न्तरि॑क्षं॒ वरी॒योऽप्र॑थतं जी॒वसे॑ नो॒ रजां॑सि ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrāviṣṇū tat panayāyyaṁ vāṁ somasya mada uru cakramāthe | akṛṇutam antarikṣaṁ varīyo prathataṁ jīvase no rajāṁsi ||

पद पाठ

इन्द्रा॑विष्णू॒ इति॑। तत्। प॒न॒याय्य॑म्। वा॒म्। सोम॑स्य। मदे॑। उ॒रु। च॒क्र॒मा॒थे॒ इति॑। अकृ॑णुतम्। अ॒न्तरि॑क्षम्। वरी॑यः। अप्र॑थतम्। जी॒वसे॑। नः॒। रजां॑सि ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:69» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजा और प्रजाजनो ! जो (इन्द्राविष्णू) वायु और सूर्य्य (सोमस्य) ऐश्वर्य्य का (मदे) आनन्द प्राप्त होने पर (तत्) उस (अन्तरिक्षम्) भूमि और सूर्य्य के बीच की पोल को (पनयाय्यम्) प्रशंसा के योग्य करते हैं उनकी (वाम्) तुम (उरु) बहुत (चक्रमाथे) कामना करो और (वरीयः) अत्यन्त श्रेष्ठ को (अप्रथतम्) विख्यात करो उससे (नः) हम लोगों के (जीवसे) जीवन को तथा (रजांसि) ऐश्वर्य्यों को (अकृणुतम्) सिद्ध करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे राजप्रजाजनो ! जैसे यज्ञ से शोधे हुए वायु और बिजुली समस्त चराचर जगत् को प्रशंसा के योग्य और नीरोग करते हैं, वैसे विधान कर उससे हमारे ऐश्वर्य्य और जीवन को अधिक करो ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ किं कुर्य्यातामित्याह ॥

अन्वय:

हे राजप्रजाजनौ ! याविन्द्राविष्णू सोमस्य मदे तदन्तरिक्षं पनयाय्यं कुरुतस्तौ वामुरु चक्रमाथे वरीयोऽप्रथतं तेन नो जीवसे रजांस्यकृणुतम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्राविष्णू) वायुसूर्यौ (तत्) (पनयाय्यम्) प्रशंसनीयम् (वाम्) युवाम् (सोमस्य) ऐश्वर्य्यस्य (मदे) हर्षे जाते सति (उरु) बहु (चक्रमाथे) कामयथः (अकृणुतम्) कुर्यातम् (अन्तरिक्षम्) भूमिसूर्ययोर्मध्यस्थमाकाशम् (वरीयः) अतिशयेन वरम् (अप्रथतम्) प्रख्यापयतम् (जीवसे) जीवितुम् (नः) अस्माकमस्मान् वा (रजांसि) ऐश्वर्याणि ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे राजप्रजाजना ! यथा यज्ञेन शोधिते वायुविद्युतौ सर्वं चराचरं जगत्प्रशंसनीयमरोगं कुरुतस्तथा विधाय तेनास्माकमैश्वर्यं जीवनं चाधिकं कुर्वन्तु ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राज प्रजाजनांनो ! जसे यज्ञाने संशोधित केलेले वायू व विद्युत संपूर्ण जगाला प्रशंसा करण्यायोग्य व निरोगी बनवितात तसे विधान करून आमचे ऐश्वर्य व जीवन वाढवा. ॥ ५ ॥