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इन्द्रा॑वरुणा सुतपावि॒मं सु॒तं सोमं॑ पिबतं॒ मद्यं॑ धृतव्रता। यु॒वो रथो॑ अध्व॒रं दे॒ववी॑तये॒ प्रति॒ स्वस॑र॒मुप॑ याति पी॒तये॑ ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrāvaruṇā sutapāv imaṁ sutaṁ somam pibatam madyaṁ dhṛtavratā | yuvo ratho adhvaraṁ devavītaye prati svasaram upa yāti pītaye ||

पद पाठ

इन्द्रा॑वरुणा। सु॒त॒ऽपौ॒। इ॒मम्। सु॒तम्। सोम॑म्। पि॒ब॒त॒म्। मद्य॑म्। धृ॒त॒ऽव्र॒ता॒। यु॒वोः। रथः॑। अ॒ध्व॒रम्। दे॒वऽवी॑तये। प्रति॑। स्वस॑रम्। उप॑। या॒ति॒। पी॒तये॑ ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:68» मन्त्र:10 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:12» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राज प्रजाजन क्या करके कैसे हो, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्रावरुणा) बिजुली के समान वर्त्तमान (सुतपौ) सुन्दर ब्रह्मचर्य आदि अनुष्ठान तप जिनका और (धृतव्रता) जिन्होंने उत्तम कर्म धारण किये हैं, वे सभा और सेनाधीशो ! जिन (युवोः) तुम लोगों का (रथः) विमान आदि यान (देववीतये) दिव्यगुणों की प्राप्ति और (पीतये) उत्तमोत्तम रस पीने के लिये (प्रति, स्वसरम्) प्रतिदिन (अध्वरम्) अहिंसामय यज्ञ को (उप, याति) प्राप्त होता है वे (इमम्) इस (सुतम्) उत्पन्न किये हुए (मद्यम्) जिससे जीव आनन्द को प्राप्त होता है उस (सोमम्) बड़ी-बड़ी ओषधियों के रस को (पिबतम्) पिओ ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे राजप्रजाजनो ! तुम प्रतिदिन सोमलता आदि से उत्पन्न किये हुए सर्व रोगों के हरने, बल बुद्धि, पराक्रम बढ़ानेवाले, हिंसारहित, महौषधियों के रस को पीकर धर्मात्मा होओ ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते राजप्रजाजनाः किं कृत्वा कीदृशा भवेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्रावरुणेव सुतपौ धृतव्रता सभासेनेशौ ! ययोर्युवो रथो देववीतये पीतये प्रति स्वसरमध्वरमुप याति ताविमं सुतं मद्यं सोमं प्रति पिबतम् ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रावरुणा) विद्युद्वद्वर्त्तमानौ सभासेनेशौ (सुतपौ) सुष्ठुब्रह्मचर्याद्यनुष्ठानाख्यं तपो ययोस्तौ। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति सलोपः। (इमम्) प्रत्यक्षम् (सुतम्) निष्पादितम् (सोमम्) महौषधिरसम् (पिबतम्) (मद्यम्) येन माद्यति हृष्यत्यानन्दति तम् (धृतव्रता) धृतानि कर्माणि याभ्यां तौ (युवोः) युवयोः (रथः) विमानादियानम् (अध्वरम्) अहिंसामयम् (देववीतये) दिव्यगुणप्राप्तये (प्रति) वीप्सायाम् (स्वसरम्) दिनम् (उप) (याति) उपगच्छति (पीतये) पानाय ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे राजप्रजाजना यूयं प्रतिदिनं सोमलताद्युत्पन्नं सर्वरोगहरं बलबुद्धिपराक्रमवर्धकं हिंसारहितं महौषधिरसं पीत्वा धर्मात्मानो भवत ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा प्रजाननांनो ! तुम्ही प्रत्येक दिवशी सोमलता इत्यादीने उत्पन्न केलेल्या, सर्व रोग नष्ट करणाऱ्या, बल, बुद्धी, पराक्रम वाढविणाऱ्या, हिंसारहित, महौषधींचा रस प्राशन करून धर्मात्मा बना. ॥ १० ॥