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श्रु॒ष्टी वां॑ य॒ज्ञ उद्य॑तः स॒जोषा॑ मनु॒ष्वद्वृ॒क्तब॑र्हिषो॒ यज॑ध्यै। आ य इन्द्रा॒वरु॑णावि॒षे अ॒द्य म॒हे सु॒म्नाय॑ म॒ह आ॑व॒वर्त॑त् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śruṣṭī vāṁ yajña udyataḥ sajoṣā manuṣvad vṛktabarhiṣo yajadhyai | ā ya indrāvaruṇāv iṣe adya mahe sumnāya maha āvavartat ||

पद पाठ

श्रु॒ष्टी। वा॒म्। य॒ज्ञः। उत्ऽय॑तः। स॒ऽजोषाः॑। म॒नु॒ष्वत्। वृ॒क्तऽब॑र्हिषः। यज॑ध्यै। आ। यः। इन्द्रा॒वरु॑णौ। इ॒षे। अ॒द्य। म॒हे। सु॒म्नाय॑। म॒हे। आ॑ऽव॒वर्त॑त् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:68» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:11» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ऋचावाले अड़सठवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों को अच्छे प्रकार कौन पढ़ाने चाहियें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्रावरुणौ) वायु और बिजुली के समान अध्यापक और उपदेशको ! (यः) जो (उद्यतः) उद्योगी (सजोषाः) अपने आत्मा के तुल्य औरों का प्रीति से सेवन करता (मनुष्यवत्) मनुष्य के तुल्य (वृक्तबर्हिषः) संक्षोभित किया जल जिसने उसका और (वाम्) तुम्हारा (यज्ञः) सङ्ग करने योग्य शिष्य (आ, यजध्यै) अच्छे प्रकार सङ्ग करने को (अद्य) आज (महे) महान् (सुम्नाय) सुख वा (महे) बहुत (इषे) विज्ञान वा अन्न के लिये (श्रुष्टी) शीघ्र (आववर्त्तत्) अच्छे प्रकार वर्त्तमान है, उसको तुम दोनों पढ़ाओ ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे पढ़ाने और उपदेश करनेवालो ! जो आप लोगों के सुख के लिये प्रयत्न करते हुए पुरुषार्थी, प्रीतिमान्, शीघ्रकारी वर्त्तमान हैं उन पवित्र, जितेन्द्रिय, धार्मिक विद्यार्थियों को निरन्तर सत्य का उपदेश करो ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्भिः के सम्यगध्यापनीया इत्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्रावरुणौ ! य उद्यतस्सजोषा मनुष्यवद्वृक्तबर्हिषो वां यज्ञ आ यजध्या अद्य महे सुम्नाय मह इषे श्रुष्ट्याववर्त्ततं युवामध्यापयेतम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (श्रुष्टी) सद्यः (वाम्) युवयोः (यज्ञः) सङ्गमनीयः शिष्यः (उद्यतः) उद्योगी (सजोषाः) स्वात्मवदन्येषां प्रीत्या सेवकः (मनुष्वत्) मनुष्येण तुल्यः (वृक्तबर्हिषः) वृक्तं छेदितं बर्हिरुदकं येन तस्य। बर्हिरित्युदकनाम। (निघं०१.१३) (यजध्यै) यष्टुं सङ्गन्तुम् (आ) (यः) (इन्द्रावरुणौ) वायुविद्युताविवाऽध्यापकोपदेशकौ (इषे) विज्ञानायाऽन्नाय वा (अद्य) इदानीम् (महे) महते (सुम्नाय) सुखाय (महे) महते (आववर्त्तत्) समन्ताद्वर्तते ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे अध्यापकोपदेशका ! ये भवतां सुखाय प्रयतमानाः पुरुषार्थिनः प्रीतिमन्त आशुकारिणो वर्त्तन्ते तान् पवित्राञ्जितेन्द्रियान् धार्मिकान् विद्यार्थिन सततं सत्यमुपदिशत ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात वरुणप्रमाणे राजा प्रजेच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे अध्यापक व उपदेशकांनो ! जे तुमच्या सुखासाठी प्रयत्नशील, पुरुषार्थी, प्रिय व गतिमान असतात त्या पवित्र जितेंद्रिय, धार्मिक विद्यार्थ्यांना सतत सत्याचा उपदेश करा. ॥ १ ॥