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ता जि॒ह्वया॒ सद॒मेदं सु॑मे॒धा आ यद्वां॑ स॒त्यो अ॑र॒तिर्ऋ॒ते भूत्। तद्वां॑ महि॒त्वं घृ॑तान्नावस्तु यु॒वं दा॒शुषे॒ वि च॑यिष्ट॒मंहः॑ ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tā jihvayā sadam edaṁ sumedhā ā yad vāṁ satyo aratir ṛte bhūt | tad vām mahitvaṁ ghṛtānnāv astu yuvaṁ dāśuṣe vi cayiṣṭam aṁhaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ता। जि॒ह्वया॑। सद॑म्। आ। इ॒दम्। सु॒ऽमे॒धाः। आ। यत्। वा॒म्। स॒त्यः। अ॒र॒तिः। ऋ॒ते। भू॒त्। तत्। वा॒म्। म॒हि॒ऽत्वम्। घृ॒त॒ऽअ॒न्नौ॒। अ॒स्तु॒। यु॒वम्। दा॒शुषे॑। वि। च॒यि॒ष्ट॒म्। अंहः॑ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:67» मन्त्र:8 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर किनके सङ्ग से जन विद्वान् हों, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (घृतान्नौ) बहुत घृत और अन्नवाले अध्यापक और उपदेशक जनो ! (वाम्) तुम दोनों के उपदेश से (सुमेधाः) उत्तम जिसकी बुद्धि वह (अरतिः) सत्य उपदेश को प्राप्त होता हुआ (सत्यः) सज्जनों में उत्तम जन (जिह्वया) वाणी से (आ, इदम्, सदम्) सब ओर से जिसमें विद्वान् जन स्थिर होते हैं, उस सत्य वचन को पाकर (ऋते) सत्य धर्म में (आ, भूत्) प्रसिद्ध होवे (यत्) जो (युवम्) आप दोनों (दाशुषे) दानशील पुरुष के लिये (अंहः) पाप को (वि, चयिष्टम्) विगत चयन करते हैं (तत्) वह (वाम्) तुम दोनों की (महित्वम्) महिमा (अस्तु) हो (ता) उन तुम दोनों का हम लोग निरन्तर सत्कार करें ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिनकी उत्तेजना से तुम लोग विद्या को प्राप्त होओ वा उपदेश ग्रहण करो, उनका धन्यवाद आदि से निरन्तर सत्कार करो, जिनके सङ्ग से मनुष्य सत्य आचरणवाले उत्तम ज्ञाता होते हैं, वे ही महाशय हैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः केषां सङ्गेन जना विद्वांसो भवेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे घृतान्नावध्यापकोपदेशकौ ! वामुपदेशेन सुमेधा अरतिः सत्यो जिह्वयेदं सदं प्राप्य ऋत आ भूद्यद्यौ युवं दाशुषेंऽहो वि चयिष्टं तद्वां महित्वमस्तु ता वयं सततं सत्कुर्याम ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ता) तौ (जिह्वया) वाचा (सदम्) सीदन्ति विद्वांसो यस्मिंस्तत्सत्यं वचः (आ) (इदम्) (सुमेधाः) उत्तमप्रज्ञः (आ) (यत्) यौ (वाम्) युवयोरुपदेशेन (सत्यः) सत्सु साधुः (अरतिः) सत्यमुपदेशं प्राप्तः सन् (ऋते) सत्ये धर्मे (भूत्) भवेत् (तत्) (वाम्) युवयोः (महित्वम्) महिमानम् (घृतान्नौ) बहुघृतान्नौ (अस्तु) (युवम्) (दाशुषे) दात्रे (वि) विगतार्थे (चयिष्टम्) चिनुतः (अंहः) पापम् ॥८॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! येषां सकाशाद्यूयं विद्या प्राप्नुतोपदेशं वा गृह्णीत तान् धन्यवादादिना सततं सत्कुरुत येषां सङ्गेन मनुष्याः सत्याचाराः सुज्ञा जायन्ते त एव महाशयाः सन्ति ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! ज्यांच्यापासून तुम्ही विद्या प्राप्त करता किंवा उपदेश ग्रहण करता त्यांना धन्यवाद देऊन सदैव सत्कार करा. ज्यांच्या संगतीने माणसे सत्याचरणी बनून उत्तम ज्ञाते होतात तेच थोर पुरुष असतात. ॥ ८ ॥