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विश्वे॒ यद्वां॑ मं॒हना॒ मन्द॑मानाः क्ष॒त्रं दे॒वासो॒ अद॑धुः स॒जोषाः॑। परि॒ यद्भू॒थो रोद॑सी चिदु॒र्वी सन्ति॒ स्पशो॒ अद॑ब्धासो॒ अमू॑राः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśve yad vām maṁhanā mandamānāḥ kṣatraṁ devāso adadhuḥ sajoṣāḥ | pari yad bhūtho rodasī cid urvī santi spaśo adabdhāso amūrāḥ ||

पद पाठ

विश्वे॑। यत्। वा॒म्। मं॒हना॑। मन्द॑मानाः। क्ष॒त्रम्। दे॒वासः॑। अद॑धुः। स॒ऽजोषाः॑। परि॑। यत्। भू॒थः। रोद॑सी॒ इति॑। चि॒त्। उ॒र्वी इति॑। सन्ति॑। स्पशः॑। अद॑ब्धासः। अमू॑राः ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:67» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:9» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कौन सत्कार करने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापक और उपदेशको ! (यत्) जो तुम दोनों (उर्वी) बहुत पदार्थों से युक्त (रोदसी) प्रकाश और पृथिवी के समान विद्या और क्षमा से युक्त (भूथः) होते हो उन (वाम्) तुम्हारे सङ्ग से (यत्) जो (मंहना) सत्कार करनेवाले (मन्दमानाः) आनन्द वा सत्कार को प्राप्त वा स्तुति करते (सजोषाः) एकसी प्रीति को सेवनेवाले (स्पशः) अविद्यान्धकार का विनाश करने और विद्याप्रकाश का स्पर्श करनेवाले (अदब्धासः) हिंसा को न प्राप्त और हिंसा न करनेवाले (अमूराः) मूढ़तादि दोषरहित (विश्वे, देवासः) समस्त कामना करते हुए विद्वान् जन (सन्ति) हैं, वे ही (चित्) निश्चित (क्षत्रम्) धन वा राज्य को (परि, अदधुः) सब ओर से धारण करते हैं, उनका वा उन तुम लोगों का सब हम लोग निरन्तर सत्कार करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - वे ही आप्त विद्वान् जन हैं, जिनका पढ़ाना, उपदेश और सङ्ग शीघ्र सफल होता है, जिनके सङ्ग से हिंसा आदि दोषरहित विद्वान् होकर पक्षपात को छोड़ सब प्राणियों को अपने आत्मा के तुल्य सुख देते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः के सत्कर्त्तव्या इत्याह ॥

अन्वय:

हे अध्यापकोपदेशकौ ! यद्यौ युवामुर्वी रोदसी इव भूथस्तयोर्वा सङ्गेन यद्ये मंहना मन्दमानाः सजोषाः स्पशोऽदब्धासोऽमूरा विश्वे देवासः सन्ति त एव चित् क्षत्रं पर्यदधुस्तौ तान् युष्मान् सर्वे वयं सततं सत्कुर्याम ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वे) सर्वे (यत्) ये (वाम्) युवयोः (मंहना) सत्कर्त्तारः (मन्दमानाः) आनन्दन्तः प्राप्तसत्काराः स्तुवन्तो वा (क्षत्रम्) धनं राज्यं वा (देवासः) कामयमाना विद्वांसः (अदधुः) दधति (सजोषाः) समानप्रीतिसेविनः (परि) सर्वतः अपि [(यत्) (भूथः) (रोदसी) (चित्) ] (उर्वीः) बहुपदार्थयुक्ते (सन्ति) (स्पशः) अविद्यान्धकारं बाधमाना विद्याप्रकाशं स्पर्शन्तः (अदब्धासः) अहिंसिता अहिंसका वा (अमूराः) मूढतादिदोषरहिताः ॥५॥
भावार्थभाषाः - त एवाप्ता विद्वांसः सन्ति येषामध्यापनोपदेशसङ्गाः सद्यः सफला जायन्ते तेषां सङ्गेन हिंसादिदोषरहिता विद्वांसो भूत्वा पक्षपातं विहाय सर्वान् प्राणिनः स्वात्मवत्सुखयन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्यांचे अध्यापन, उपदेश व संगती शीघ्र सफल होते, ज्यांच्या संगतीने हिंसक न बनता विद्वान बनता येते, भेदभाव न करता सर्व प्राण्यांना जे आपल्या आत्म्याप्रमाणे सुख देतात तेच आप्त विद्वान असतात. ॥ ५ ॥