अश्वा॒ न या वा॒जिना॑ पू॒तब॑न्धू ऋ॒ता यद्गर्भ॒मदि॑ति॒र्भर॑ध्यै। प्र या महि॑ म॒हान्ता॒ जाय॑माना घो॒रा मर्ता॑य रि॒पवे॒ नि दी॑धः ॥४॥
aśvā na yā vājinā pūtabandhū ṛtā yad garbham aditir bharadhyai | pra yā mahi mahāntā jāyamānā ghorā martāya ripave ni dīdhaḥ ||
अश्वा॑। न। या। वा॒जिना॑। पू॒तब॑न्धू॒ इति॑ पू॒तऽब॑न्धू। ऋ॒ता। यत्। गर्भ॑म्। अदि॑तिः। भर॑ध्यै। प्र। या। महि॑। म॒हान्ता॑। जाय॑माना। घो॒रा। मर्ता॑य। रि॒पवे॑। नि। दी॒ध॒रिति॑ दीधः ॥४॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर सब मनुष्यों को कौन सत्कार करने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः सर्वैर्मनुष्यैः कौ पूजनीयावित्याह ॥
हे मनुष्या ! या अश्वा न वाजिना पूतबन्धू ऋतादितिरिव महि यद्गर्भं भरध्यै प्रवर्त्तमानौ या महान्ता जायमाना रिपवे मर्त्ताय घोरा प्र णि दीधस्तौ स्वात्मवत् सत्कुरुत ॥४॥