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अ॒वोरि॒त्था वां॑ छ॒र्दिषो॑ अ॒भिष्टौ॑ यु॒वोर्मि॑त्रावरुणा॒वस्कृ॑धोयु। अनु॒ यद्गावः॑ स्फु॒रानृ॑जि॒प्यं धृ॒ष्णुं यद्रणे॒ वृष॑णं यु॒नज॑न् ॥११॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avor itthā vāṁ chardiṣo abhiṣṭau yuvor mitrāvaruṇāv askṛdhoyu | anu yad gāvaḥ sphurān ṛjipyaṁ dhṛṣṇuṁ yad raṇe vṛṣaṇaṁ yunajan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒वोः। इ॒त्था। वा॒म्। छ॒र्दिषः॑। अ॒भिष्टौ॑। यु॒वोः। मि॒त्रा॒व॒रु॒णौ। अस्कृ॑धोयु। अनु॑। यत्। गावः॑। स्फु॒रान्। ऋ॒जि॒प्यम्। धृ॒ष्णुम्। यत्। रणे॑। वृष॑णम्। यु॒नज॑न् ॥११॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:67» मन्त्र:11 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:10» मन्त्र:6 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कौन विद्वान् होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापक और उपदेशको ! (यत्) जो (गावः) किरणें वा धेनु हैं उनको (स्फुरान्) स्फूर्त्तिवाले पदार्थों वा (ऋजिप्यम्) कोमल वा सरल पदार्थों के पालनेवालों में हुए (धृष्णुम्) दृढ़ प्रगल्भ (वृषणम्) बलिष्ठ को (रणे) सङ्ग्राम में कोई (युनजन्) जोड़ता हुआ विजय को प्राप्त होता है, हे (मित्रावरुणौ) वायु और सूर्य्य के समान वर्त्तमान ! (अवोः) रक्षा करनेवाले (वाम्) तुम दोनों के (छर्दिषः) घर के (अभिष्टौ) सन्मुख यज्ञक्रिया में (यत्) जो प्रयत्न करता है तथा (युवोः) तुम दोनों के सम्बन्ध में (अस्कृधोयु) जो अपनी लघुता नहीं चाहता (इत्था) इस हेतु से (अनु) अनुकूलता से यत्न करता है, उसका सदैव सत्कार करो ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे अध्यापक और उपदेशको ! जो विद्यार्थी जन तुम्हारे काम को अपने काम के समान जानते हैं, वे ही दीर्घ आयुवाले, प्रशंसित विद्यायुक्त, धार्मिक परोपकारी होते हैं ॥११॥ इस सूक्त में प्राण और उदान के समान अध्यापक और उपदेशकों के गुणों का वर्णन होने से सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सड़सठवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः के विद्वांसो भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे अध्यापकोपदेशकौ ! यद्ये गावस्तान् स्फुरानृजिप्यं धृष्णुं वृषणं रणे कश्चिद्युनजन् सन् विजयते। हे मित्रावरुणाववोर्वां छर्दिषोऽभिष्टौ यद्यः प्रयतते युवोरस्कृधोय्वित्थाऽनुयतते तं सदा सत्कुर्यातम् ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अवोः) रक्षकयोः। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति सलोपः। (इत्था) अस्माद्धेतोः (वाम्) युवयो (छर्दिषः) गृहस्य (अभिष्टौ) आभिमुख्येन यजनक्रियायाम् (युवोः) युवयोः (मित्रावरुणौ) वायुसूर्यवद्वर्त्तमानौ (अस्कृधोयु) य आत्मनः कृधु ह्रस्वत्वं नेच्छति। अत्र सुपां सुलुगिति सुलोपः। (अनु) (यत्) ये (गावः) किरणा धेनवो वा (स्फुरान्) स्फूर्त्तिमतः (ऋजिप्यम्) ऋजूनां पालके भवम् (धृष्णुम्) दृढं प्रगल्भं वा (यत्) यः (रणे) सङ्ग्रामे (वृषणम्) बलिष्ठम् (युनजत्) युञ्जन् ॥११॥
भावार्थभाषाः - हे अध्यापकोपदेशका ये विद्यार्थिनो युष्माकं कार्य्यं स्वकार्य्यवज्जानन्ति त एव दीर्घायुषः प्रशस्तविद्या धार्मिकाः परोपकारिणो जायन्त इति ॥११॥ अत्र प्राणोदानवदध्यापकोपदेशकगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति सप्तषष्टितमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे अध्यापक, उपदेशकांनो ! जे विद्यार्थी तुमच्या कार्याला आपले कार्य मानतात तेच दीर्घायु प्रशंसित, विद्यायुक्त, धार्मिक व परोपकारी असतात. ॥ ११ ॥