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म॒क्षू न येषु॑ दो॒हसे॑ चिद॒या आ नाम॑ धृ॒ष्णु मारु॑तं॒ दधा॑नाः। न ये स्तौ॒ना अ॒यासो॑ म॒ह्ना नू चि॑त्सु॒दानु॒रव॑ यासदु॒ग्रान् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

makṣū na yeṣu dohase cid ayā ā nāma dhṛṣṇu mārutaṁ dadhānāḥ | na ye staunā ayāso mahnā nū cit sudānur ava yāsad ugrān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म॒क्षु। न। येषु॑। दो॒हसे॑। चि॒त्। अ॒याः। आ। नाम॑। घृ॒ष्णु। मारु॑तम्। दधा॑नाः। न। ये। स्तौ॒नाः। अ॒यासः॑। म॒ह्ना। नु। चि॒त्। सु॒ऽदानुः॑। अव॑। या॒स॒त्। उ॒ग्रान् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:66» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:7» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

यहाँ कितने प्रकार के पुरुष होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (येषु) जिन मनुष्यों में (चित्) निश्चय से (दोहसे) कामों के पूरे करने की शक्ति नहीं है वा जो (अयाः) प्राप्त होते हुए (धृष्णु) दृढ़ प्रगल्भ (मारुतम्) मनुष्यों के इस (नाम) प्रसिद्ध व्यवहार को (आ, दधानाः) धारण करते हुए हैं वा (ये) जो (अयासः) चलते हुए (स्तौनाः) चोर (न) नहीं और जो (सुदानुः) उत्तम दान देनेवाला (उग्रान्) कठिन स्वभाववालों को (मक्षू) शीघ्र (न) न (अव, यासत्) प्राप्त करे उनका (चित्) शीघ्र (मह्ना) महत्त्व से (नू) शीघ्र सत्कार करे, उनको यथावत् सब जानें ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! इस जगत् में दो प्रकार के मनुष्य हैं-एक शक्ति और विद्या से हीन, दुष्ट कर्म करनेवाले हैं, दूसरे शक्तिमान्, श्रेष्ठ कर्म धारण करनेवाले हैं, उनमें जो दुष्कर्म करनेवालों का सत्कार नहीं करते और श्रेष्ठों का सत्कार करते हैं, वे शीघ्र महान् चाहे हुए सुख को पाते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

इह कतिविधाः पुरुषा भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

येषु चिद्दोहसे शक्तिर्नास्ति येऽया धृष्णु मारुतं नामाऽऽदधानाः सन्ति येऽयासः स्तौना न सन्ति यस्सुदानुस्तानुग्रान् मक्षू नाऽवयासत्तांश्चिन्मह्ना नू सत्कुर्यात् तान् यथावत्सर्वे विजानन्तु ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मक्षू) क्षिप्रम्। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (न) निषेधे (येषु) मनुष्येषु (दोहसे) कामान् दोग्धुं प्रपूरयितुम् (चित्) अपि (अयाः) प्राप्नुवतः (आ) (नाम) (धृष्णु) दृढं प्रगल्भम् (मारुतम्) मनुष्याणामिदम् (दधानाः) (न) (ये) (स्तौनाः) चौराः। अत्र वर्णव्यत्ययेनैकारस्थान औकारः। (अयासः) गच्छन्तः (मह्ना) महत्त्वेन (नू) सद्यः। अत्रापि ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (चित्) (सुदानुः) उत्तमदानः (अव) (यासत्) प्रापयेत् (उग्रान्) कठिनस्वभावान् ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! अत्र द्विविधा मनुष्या एके शक्तिविद्याहीना दुष्टकर्मकारिणोऽपरे शक्तिमन्तः श्रेष्ठकर्मधारिणः सन्ति तत्र ये दुष्कृतान् न सत्कुर्वन्ति श्रेष्ठाँश्चार्चन्ति ते सद्यो महदिष्टं सुखं लभन्ते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! या जगात दोन प्रकारची माणसे आहेत. एक शक्ती व विद्येने हीन, दुष्ट कर्म करणारे, दुसरे शक्तिमान, श्रेष्ठ कर्म करणारे असतात. त्यात जी दुष्ट कर्म करणाऱ्यांचा सत्कार करीत नाहीत, तर श्रेष्ठांचा सत्कार करतात. ती ताबडतोब इच्छित सुख प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥