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ऊ॒र्ध्वो वा॑म॒ग्निर॑ध्व॒रेष्व॑स्था॒त्प्र रा॒तिरे॑ति जू॒र्णिनी॑ घृ॒ताची॑। प्र होता॑ गू॒र्तम॑ना उरा॒णोऽयु॑क्त॒ यो नास॑त्या॒ हवी॑मन् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ūrdhvo vām agnir adhvareṣv asthāt pra rātir eti jūrṇinī ghṛtācī | pra hotā gūrtamanā urāṇo yukta yo nāsatyā havīman ||

पद पाठ

ऊ॒र्ध्वः। वा॒म्। अ॒ग्निः। अ॒ध्व॒रेषु॑। अ॒स्था॒त्। प्र। रा॒तिः। ए॒ति॒। जू॒र्णिनी॑। घृ॒ताची॑। प्र। होता॑। गू॒र्तऽम॑नाः। उ॒रा॒णः। अयु॑क्त। यः। नास॑त्या। हवी॑मन् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:63» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:3» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नासत्या) सत्य व्यवहारयुक्त सभासेनाधीशो ! (वाम्) तुम दोनों का यदि (यः) जो (गूर्त्तमनाः) उद्यम करने को मन जिसका वह (उराणः) बहुत पदार्थ सिद्ध करनेवाला (होता) दानशीलजन (अध्वरेषु) अहिंसादि धर्मयुक्त व्यवहारों में (ऊर्ध्वः) ऊपर जानेवाला (अग्निः) अग्नि के समान (अस्थात्) स्थिर होता है और (घृताची) रात्रि के समान (जूर्णिनी) वेगवती (रातिः) दानक्रिया (प्र, एति) प्राप्त होती है वा (हवीमन्) होम कर्म में (प्र, अयुक्त) अच्छे प्रकार प्रयुक्त होता, उसका सदा सत्कार करो ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे सभासेनाधीशो ! जो मनुष्य राजव्यवहार में सत्य और उत्साह से प्रवृत्त होते हैं, उनका सत्कार आप लोग करें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ किं कुर्य्यातामित्याह ॥

अन्वय:

हे नासत्या सभासेनेशौ ! वां यदि यो गूर्त्तमना उराणो होताऽध्वरेषूर्ध्वोऽग्निरिवाऽस्थाद् घृताचीव जूर्णिनी रातिः प्रैति हवीमन् प्रायुक्त तं सदा सत्कुर्याताम् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऊर्ध्वः) ऊर्ध्वगामी (वाम्) युवयोः (अग्निः) पावक इव (अध्वरेषु) अहिंसादिधर्म्यव्यवहारेषु (अस्थात्) तिष्ठति (प्र) (रातिः) दानम् (एति) प्राप्नोति (जूणिनी) वेगवती (घृताची) रात्रिः। घृताचीति रात्रिनाम। (निघं०१.७) (प्र) (होता) दाता (गूर्तमनाः) गूर्त्तमुद्युक्तं मनो यस्य सः (उराणः) बहु कुर्वाणः (अयुक्त) युङ्क्ते (यः) (नासत्या) अविद्यमानासत्यव्यवहारौ (हवीमन्) होमे ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे सभासेनेशौ ! ये मनुष्या राजव्यवहारे सत्योत्साहाभ्यां प्रवर्त्तन्ते तान् भवन्तौ सत्कुर्याताम् ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे सभा सेनाधीशांनो ! जी माणसे राज्यव्यवहारात सत्याने व उत्साहाने प्रवृत्त होतात त्यांचा तुम्ही सत्कार करा. ॥ ४ ॥