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य इ॒द्ध आ॒विवा॑सति सु॒म्नमिन्द्र॑स्य॒ मर्त्यः॑। द्यु॒म्नाय॑ सु॒तरा॑ अ॒पः ॥११॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ya iddha āvivāsati sumnam indrasya martyaḥ | dyumnāya sutarā apaḥ ||

पद पाठ

यः। इ॒द्धे। आ॒ऽविवा॑सति। सु॒म्नम्। इन्द्र॑स्य। मर्त्यः॑। द्यु॒म्नाय॑। सु॒ऽतराः॑। अ॒पः ॥११॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:60» मन्त्र:11 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:29» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को किसके लिये क्या सेवन करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (मर्त्यः) मनुष्य (इद्धे) प्रदीप्त व्यवहार में (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य के (द्युम्नाय) यश वा धन के लिये (सुतराः) सुन्दरता से जिनमें तैरें उन (अपः) जलों को और (सुम्नम्) सुख को (आविवासति) सब ओर से सेवता है, वह भाग्यवान् होता है ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्य जैसे प्रदीप्त अग्नि में सुगन्ध्यादि पदार्थों की हवि होमकर सिद्धकाम होते हैं, वैसे जो यश से धर्मकीर्त्ति वा स्वर्ग के लिये प्रयत्न करते हैं, वे निरन्तर श्रीमान् होते हैं ॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कस्मै किं सेवितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

यो मर्त्य इद्ध इन्द्रस्य द्युम्नाय सुतरा अपः सुम्नं चाऽऽविवासति स भाग्यवाञ्जायते ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) यजमानः (इद्धे) प्रदीप्ते (आविवासति) समन्तात्सेवते (सुम्नम्) सुखम् (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यस्य (मर्त्यः) मनुष्यः (द्युम्नाय) यशसे धनाय वा (सुतराः) सुष्ठु तरन्ति यासु ताः (अपः) जलानि ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्या यथेद्धे पावके सुगन्ध्यादि हविर्हुत्वा सिद्धकामा भवन्ति तथैव ये यशसा धर्म्मकीर्त्यै स्वर्ग्याय च प्रयतन्ते ते सुतरां श्रीमन्तो जायते ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसे जशी प्रदीप्त अग्नीत सुगंधी पदार्थांचे हविद्रव्य टाकून सिद्धकाम होतात तसे जे यश मिळवून कीर्ती प्राप्त करतात. धर्माने ते श्रीमंत होतात. ॥ ११ ॥