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स चि॑त्र चि॒त्रं चि॒तय॑न्तम॒स्मे चित्र॑क्षत्र चि॒त्रत॑मं वयो॒धाम्। च॒न्द्रं र॒यिं पु॑रु॒वीरं॑ बृ॒हन्तं॒ चन्द्र॑ च॒न्द्राभि॑र्गृण॒ते यु॑वस्व ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa citra citraṁ citayantam asme citrakṣatra citratamaṁ vayodhām | candraṁ rayim puruvīram bṛhantaṁ candra candrābhir gṛṇate yuvasva ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। चि॒त्र॒। चि॒त्रम्। चि॒तय॑न्तम्। अ॒स्मे इति॑। चित्र॑ऽक्षत्र। चि॒त्रऽत॑मम्। व॒यः॒ऽधाम्। च॒न्द्रम्। र॒यिम्। पु॒रु॒ऽवीर॑म्। बृ॒हन्त॑म्। चन्द्र॑। च॒न्द्राभिः॑। गृ॒ण॒ते। यु॒व॒स्व॒ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:6» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:8» मन्त्र:7 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (चित्र) अद्भुत गुण कर्म्म और स्वभाववाले (चित्रक्षत्र) अद्भुत राज्य वा धन से युक्त (चन्द्र) आह्लादकारक ! जैसे (सः) वह विद्वान् (चन्द्राभिः) आनन्द और धन करनेवाली प्रजाओं से (अस्मे) हम लोगों के लिये (चित्रम्) आश्चर्यभूत (चन्द्रम्) आनन्द देनेवाले सुवर्ण आदि को (चितयन्तम्) जनाते हुए तथा (चित्रतमम्) अत्यन्त आश्चर्य्ययुक्त रूप और (वयोधाम्) जीवन के धारण करने और (बृहन्तम्) बड़े (पुरुवीरम्) बहुत वीरों के देनेवाले (रयिम्) धन की (गृणते) स्तुति करता है, उसको आप (युवस्व) उत्तम प्रकार युक्त करिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अद्भुत गुण, कर्म्म और स्वभावों का स्वीकार करके तथा अन्य जनों को ग्रहण कराय के धनाढ्य कराते हैं, वे अद्भुत स्तुतिवाले होते हैं ॥७॥ इस सूक्त में अग्नि तथा विद्वान् के गुणों का वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह छठा सूक्त और आठवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे चित्र चित्रक्षत्र चन्द्र ! यथा स विद्वान् चन्द्राभिरस्मे चित्रं चन्द्रं चितयन्तं चित्रतमं वयोधां बृहन्तं पुरुवीरं रयिं गृणते तं त्वं युवस्व ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (चित्र) अद्भुतगुणकर्म्मस्वभाव (चित्रम्) आश्चर्य्यभूतम् (चितयन्तम्) ज्ञापयन्तम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (चित्रक्षत्र) चित्रमद्भुतं क्षत्रं राज्यं धनं वा यस्य (चित्रतमम्) अत्यन्ताश्चर्य्ययुक्तं रूपम् (वयोधाम्) यो वयो जीवनं दधाति [(चन्द्रम्) (रयिम्)] (पुरुवीरम्) बहुवीरप्रदम् (बृहन्तम्) महान्तम् (चन्द्र) आह्लादकारक (चन्द्राभिः) आनन्दधनकरीभिः प्रजाभिः (गृणते) स्तौति (युवस्व) संयोजय ॥७॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या अद्भुगुणकर्म्मस्वभावान् स्वीकृत्यान्यान् ग्राहयित्वा धनाढ्यान् कारयन्ति तेऽद्भुतस्तुतयो भवन्तीति ॥७॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति षष्ठं सूक्तमष्टमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे अद्भुत गुण, कर्म स्वभावाचा स्वीकार करून इतरांनाही ग्रहण करवून धनाढ्य करवितात त्यांची अत्यंत स्तुती होते. ॥ ७ ॥