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सोम॑म॒न्य उपा॑सद॒त्पात॑वे च॒म्वोः॑ सु॒तम्। क॒र॒म्भम॒न्य इ॑च्छति ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

somam anya upāsadat pātave camvoḥ sutam | karambham anya icchati ||

पद पाठ

सोम॑म्। अ॒न्यः। उप॑। अ॒स॒द॒त्। पात॑वे। च॒म्वोः॑। सु॒तम्। क॒र॒म्भम्। अ॒न्यः। इ॒च्छ॒ति॒ ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:57» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:23» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् जन किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमैश्वर्य्ययुक्त और सब की पुष्टि करनेवाले ! तुम दोनों में से (अन्यः) एक जन (चम्वोः) आकाश और पृथिवी के बीच (सुतम्) उत्पन्न हुए (सोमम्) ऐश्वर्य्य के (पातवे) पीने को (उप, असदत्) दूसरे के समीप बैठता है (अन्यः) और दूसरा (करम्भम्) भोगने योग्य पदार्थ को (इच्छति) चाहता है, उन दोनों को हम लोग मित्रता आदि के लिये स्वीकार करते हैं ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वान् जनो ! जैसे सूर्य और चन्द्रमा द्यावा और पृथिवी के बीच वर्त्तमान होते हुए हैं, इन दोनों में से सूर्य्य रस को लेता है और चन्द्रमा रस को देता है, वैसे ही तुम सब वर्त्तो ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किंवत् किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्रापूषणौ ! युवयोरन्य एकश्चम्वोर्मध्ये सुतं सोमं पातव उपासददन्यः करम्भमिच्छति तौ वयं सख्याद्याय हुवेम ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सोमम्) ऐश्वर्यम् (अन्यः) (उप) (असदत्) उपसीदति (पातवे) पातुम् (चम्वोः) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (सुतम्) निष्पन्नम् (करम्भम्) भोगं कर्तुं योग्यम् (अन्यः) (इच्छति) ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! यथा सूर्याचन्द्रमसौ द्यावापृथिव्योर्मध्ये वर्त्तमानौ सन्तावनयोः सूर्य्यो रसं गृह्णाति चन्द्रो रसदानं च करोति तथैव यूयं वर्त्तध्वम् ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो ! जसे सूर्य व चंद्र, द्युलोक व पृथ्वीलोकाच्या मध्ये असतात. या दोन्हीपैकी सूर्य रस घेतो व चंद्र रस देतो तसेच तुम्ही सर्वजण वागा. ॥ २ ॥