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वि प॒थो वाज॑सातये चिनु॒हि वि मृधो॑ जहि। साध॑न्तामुग्र नो॒ धियः॑ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi patho vājasātaye cinuhi vi mṛdho jahi | sādhantām ugra no dhiyaḥ ||

पद पाठ

वि। प॒थः। वाज॑ऽसातये। चि॒नु॒हि। वि। मृधः॑। ज॒हि॒। साध॑न्ताम्। उ॒ग्र॒। नः॒। धियः॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:53» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:17» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (उग्र) तेजस्वी सेनापति ! आप (वाजसातये) विज्ञान वा धन की प्राप्ति वा सङ्ग्राम के लिये (पथः) मार्ग से (वि, चिनुहि) सञ्चय करो तथा (मृधः) सङ्ग्रामों में प्रवृत दुष्टों को (वि, जहि) विशेषता से मारो जिससे (नः) हमारी (धियः) बुद्धियाँ कार्यों को (साधन्ताम्) सिद्ध करें ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! आप उत्तम निर्भय मार्गों को बनाओ, उन में विपथगामियों को मारो, जिससे सब की बुद्धि उत्तम कर्मों की उन्नति करने के लिये प्रवृत्त हों ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे उग्र सेनेश ! त्वं वाजसातये पथो वि चिनुहि मृधो वि जहि यतो नो धियः कार्याणि साधन्ताम् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वि) (पथः) मार्गात् (वाजसातये) विज्ञानस्य धनस्य वा प्राप्तयेऽथवा सङ्ग्रामाय (चिनुहि) सञ्चयं कुरु (वि) विशेषेण (मृधः) सङ्ग्रामेषु प्रवृत्तान् दुष्टान् (जहि) (साधन्ताम्) साध्नुवन्तु (उग्र) तेजस्विन् (नः) अस्माकम् (धियः) प्रज्ञाः ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे राजँस्त्वमुत्तमान्निर्भयान् मार्गान् विधेहि तत्र परिपन्थिनो हिन्धि, येन सर्वेषां प्रज्ञा उत्तमकर्मोन्नतये प्रवर्त्तेरन् ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! तू उत्तम निर्भय मार्ग बनव. विपथगामी लोकांना दंड दे. ज्यामुळे सर्वांच्या बुद्धीत उत्तम कर्माची वाढ होण्याची प्रवृत्ती निर्माण व्हावी. ॥ ४ ॥