उ॒त नो॑ गो॒षणिं॒ धिय॑मश्व॒सां वा॑ज॒सामु॒त। नृ॒वत्कृ॑णुहि वी॒तये॑ ॥१०॥
uta no goṣaṇiṁ dhiyam aśvasāṁ vājasām uta | nṛvat kṛṇuhi vītaye ||
उ॒त। नः॒। गो॒ऽसनि॑म्। धिय॑म्। अ॒श्व॒साम्। वा॒ज॒साम्। उ॒त। नृ॒ऽवत्। कृ॒णु॒हि॒। वी॒तये॑ ॥१०॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे पशुपाल विद्वंस्त्वं नो वीतये गोषणिमुताऽश्वसामुत वाजसां धियं नृवत्कृणुहि ॥१०॥