व॒यमु॑ त्वा पथस्पते॒ रथं॒ न वाज॑सातये। धि॒ये पू॑षन्नयुज्महि ॥१॥
vayam u tvā pathas pate rathaṁ na vājasātaye | dhiye pūṣann ayujmahi ||
व॒यम्। ऊँ॒ इति॑। त्वा॒। प॒थः॒। प॒ते॒। रथ॑म्। न। वाज॑ऽसातये। धि॒ये। पू॒ष॒न्। अ॒यु॒ज्म॒हि॒ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब दश ऋचावाले त्रेपनवें सूक्त का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में मनुष्य किसके लिये किनका सेवन करें, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मनुष्याः कस्मै कान् सेवेरन्नित्याह ॥
हे पूषन् पथस्पते ! वयमु वाजसातये धिये त्वा रथं नाऽयुज्महि ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात राजमार्ग, दस्यूंचे निवारण, उत्तम दक्षिणा देणाऱ्यांना प्रेरणा, दुष्टांना मारणे, श्रेष्ठांचे पालन व पशूंची वृद्धी सांगितलेली आहे. त्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.