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विश्वे॑ देवाः शृणु॒तेमं हवं॑ मे॒ ये अ॒न्तरि॑क्षे॒ य उप॒ द्यवि॒ ष्ठ। ये अ॑ग्निजि॒ह्वा उ॒त वा॒ यज॑त्रा आ॒सद्या॒स्मिन्ब॒र्हिषि॑ मादयध्वम् ॥१३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśve devāḥ śṛṇutemaṁ havam me ye antarikṣe ya upa dyavi ṣṭha | ye agnijihvā uta vā yajatrā āsadyāsmin barhiṣi mādayadhvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्वे॑। दे॒वाः॒। शृ॒णु॒त। इ॒मम्। हव॑म्। मे॒। ये। अ॒न्तरि॑क्षे। ये। उप॑। द्यवि॑। स्थ। ये। अ॒ग्नि॒ऽजि॒ह्वाः। उ॒त। वा॒। यज॑त्राः। आ॒ऽसद्य॑। अ॒स्मिन्। ब॒र्हिषि॑। मा॒द॒य॒ध्व॒म् ॥१३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:52» मन्त्र:13 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:16» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कौन बुला कर सत्कार करने योग्य हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विश्वे, देवाः) सब विद्वानो ! (ये) जो (अन्तरिक्षे) भीतर अविनाशी आकाश में (ये) जो (द्यवि) प्रकाश में (ये) जो (अग्निजिह्वाः) सत्य से प्रकाशमान जिह्वा जिन की (उत, वा) अथवा (यजत्राः) सङ्ग करने योग्य हों उन सब के साथ (मे) मेरे (इमम्) इस (हवम्) सुने पढ़े और जाने हुए विषय को (उप, शृणुत) समीप में सुनो और समीप में (स्थ) स्थिर होओ तथा (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) उत्तम आसन वा स्थान में (आसद्य) बैठ के हम लोगों को (मादयध्वम्) आनन्दित करो ॥१३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को सदैव जो विमानस्थ, अन्तरिक्ष में, वा जो बिजुली की विद्या में कुशल हैं और जो पढ़ाने वा परीक्षा करने में निपुण, धर्मिष्ठ, आप्त विद्वान् हों उनके निकट जाकर और उनको अपने समीप बुलाकर सत्कार कर इनसे सुनना चाहिये और सुना हुआ सुनाना चाहिये, जिससे सुनने में वा विज्ञान में श्रम न हो ॥१३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः क आहूय सत्कर्त्तव्या इत्याह ॥

अन्वय:

हे विश्वे देवा ! येऽन्तरिक्षे ये द्यवि येऽग्निजिह्वा उत वा यजत्राः स्युस्तैः सह म इमं हवमुप शृणुत समीपे च स्थ। अस्मिन् बर्हिष्याऽऽसद्याऽस्मान् मादयध्वम् ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (शृणुत) (इमम्) (हवम्) श्रुताधीतज्ञातविषयम् (मे) मम (ये) (अन्तरिक्षे) अन्तरक्षय आकाशे (ये) (उप) (द्यवि) प्रकाशे (स्थ) (ये) (अग्निजिह्वाः) अग्निना सत्येन सुप्रकाशिता जिह्वा येषान्ते (उत) (वा) (यजत्राः) सङ्गन्तव्याः (आसद्य) स्थित्वा (अस्मिन्) (बर्हिषि) उत्तम आसने स्थाने वा (मादयध्वम्) ॥१३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सदैव ये विमानस्था अन्तरिक्षे, ये विद्युद्विद्यायां कुशला ये चाऽध्यापने परीक्षायां च निपुणा धर्मिष्ठा आप्ता विद्वांसः स्युस्तत्सन्निधौ गत्वा तान् स्वसमीपमाहूय सत्कृत्यैतेभ्यः श्रोतव्यं श्रुतं श्राव्यञ्च यतः श्रवणे विज्ञाने वा श्रमो न स्यात् ॥१३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे विमान, अंतरिक्ष व विद्युत विद्येत कुशल असतील व जे शिकविण्यात किंवा परीक्षा घेण्यात निपुण धार्मिक विद्वान असतील त्यांच्याजवळ जाऊन व त्यांना आमंत्रित करून माणसांनी सत्कार करावा. त्यांच्याकडे ऐकावे व ऐकलेले ऐकविले पाहिजे. ज्यामुळे ऐकण्यात किंवा विज्ञानात श्रम होता कामा नयेत. ॥ १३ ॥