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अपि॒ पन्था॑मगन्महि स्वस्ति॒गाम॑ने॒हस॑म्। येन॒ विश्वाः॒ परि॒ द्विषो॑ वृ॒णक्ति॑ वि॒न्दते॒ वसु॑ ॥१६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

api panthām aganmahi svastigām anehasam | yena viśvāḥ pari dviṣo vṛṇakti vindate vasu ||

पद पाठ

अपि॑। पन्था॑म्। अ॒ग॒न्म॒हि॒। स्व॒स्ति॒ऽगाम्। अ॒ने॒हस॑म्। येन॑। विश्वाः॑। परि॑। द्विषः॑। वृ॒णक्ति॑। वि॒न्दते॑। वसु॑ ॥१६॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:51» मन्त्र:16 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:13» मन्त्र:6 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कैसे मार्ग सिद्ध करने चाहियें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (येन) जिसको वीर जन (विश्वाः) सब (द्विषः) शत्रुओं को (परि, वृणक्ति) सब ओर से दूर करता और (वसु) धन को (विन्दते) प्राप्त होता है उस (अनेहसम्) न नष्ट करने योग्य और (स्वस्तिगाम्) जिसमें सुख को प्राप्त होते उस (पन्थाम्) मार्ग को हम लोग (अपि) भी (अगन्महि) प्राप्त हों ॥१६॥
भावार्थभाषाः - राजादि मनुष्य ऐसे मार्गों को बनावें, जिनमें जाते हुओं को चोरों का भय न हो और द्रव्य का लाभ भी हो ॥१६॥ इस सूक्त में विश्वे देवों के कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इक्यावनवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कीदृशा मार्गा निर्मातव्या इत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! येन वीरो विश्वा द्विषः परि वृणक्ति वसु विन्दते तमनेहसं स्वस्तिगां पन्थां वयमप्यगन्महि ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अपि) (पन्थाम्) मार्गम् (अगन्महि) गच्छेम (स्वस्तिगाम्) सुखं गच्छन्ति यस्मिँस्तम् (अनेहसम्) अहन्तव्यम् (येन) (विश्वाः) सर्वाः (परि) (द्विषः) शत्रून् (वृणक्ति) दूरीकरोति (विन्दते) प्राप्नोति (वसु) द्रव्यम् ॥१६॥
भावार्थभाषाः - राजादिमनुष्या ईदृशान् मार्गान् सृजन्तु येषु गच्छतां चोरभयं न स्याद्द्रव्यलाभश्च भवेदिति ॥१६॥ अत्र विश्वेदेवकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकपञ्चाशत्तमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा वगैरेनी असे मार्ग बनवावेत की, जाताना वाटेत चोराचे भय वाटता कामा नये व द्रव्याचा लाभ व्हावा. ॥ १६ ॥