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यू॒यं हि ष्ठा सु॑दानव॒ इन्द्र॑ज्येष्ठा अ॒भिद्य॑वः। कर्ता॑ नो॒ अध्व॒न्ना सु॒गं गो॒पा अ॒मा ॥१५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yūyaṁ hi ṣṭhā sudānava indrajyeṣṭhā abhidyavaḥ | kartā no adhvann ā sugaṁ gopā amā ||

पद पाठ

यू॒यम्। हि। स्थ। सु॒ऽदा॒न॒वः॒। इन्द्र॑ऽज्येष्ठाः। अ॒भिऽद्य॑वः। कर्ता॑। नः॒। अध्व॑न्। आ। सु॒ऽगम्। गो॒पाः। अ॒मा ॥१५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:51» मन्त्र:15 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कौन इस संसार में आनन्द के देनेवाले हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुदानवः) उत्तम गुणों के देनेवाले विद्वानों ! (इन्द्रज्येष्ठाः) सूर्यलोक महान् ज्येष्ठ जिन लोकों का उनके समान वर्त्तमान (अभिद्यवः) पदार्थज्ञान के भीतर प्रकाशमान (गोपाः) रक्षा करनेवाले (अध्वन्) मार्ग में (नः) हम लोगों को तथा (सुगम्) सुन्दरता से जिसमें जाते (अमा) ऐसे घर को (आ, कर्त्ता) प्रकट करो उस (हि) ही घर में (यूयम्) तुम (स्था) स्थित होओ ॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य दुर्गम मार्गों को सुगम करते हैं और उत्तम घरों को बनाकर आप तथा औरों को निवास करते कराते हैं, वे ही जगत् में सुख करनेवाले होते हैं ॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

केऽत्राऽऽनन्ददाः सन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे सुदानवो विद्वांस इन्द्रज्येष्ठा इवाऽभिद्यवो गोपा अध्वन्नः सुगममाऽऽकर्त्ता तत्र हि यूयं स्था ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यूयम्) (हि) (स्था) तिष्ठत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सुदानवः) उत्तमगुणदानाः (इन्द्रज्येष्ठाः) सूर्य्यो ज्येष्ठो महान् येषां लोकानां तद्वद्वर्त्तमानाः (अभिद्यवः) आभ्यन्तरे कामयमानाः प्रकाशवन्तः (कर्त्ता) कुरुत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (अध्वन्) अध्वनि (आ) (सुगम्) सुष्ठु गच्छेयुर्यस्मिंस्तत् (गोपाः) रक्षकाः (अमा) गृहम्। अमेति गृहनाम (निघं०३.४) ॥१५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या दुर्गमान् मार्गान् सुगमान् कुर्वन्ति उत्तमानि गृहाणि निर्माय स्वयमन्याँश्च तत्र निवासयन्ति, त एव जगति सुखकरा भवन्ति ॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे दुर्गम मार्ग सुगम करतात व उत्तम घरे बनवून स्वतःचा व इतरांचा निवास करतात, करवितात तीच जगाला सुखी करणारी असतात. ॥ १५ ॥